काव्य-निर्णय १६३ में लपेटकर निराले ढंग से कही गयी है...."इति, स्वर्गीय पं० पद्मसिंह- वचनात् । अथ तुल्लजोगता अलंकार लच्छन जथा-- रॉम वस्तुन-गनि बोलिए, एक बार-ही धर्म । सम-फल-प्रद हित-अहित करें, काहू को ये कर्म ॥ जा'-जा सम जिहिं कहन कों वहे-वहै कहि ताहि । 'तुल्लजोगता' भूषनें,२ त्रिविध जु देहि निबाहि ॥' वि०-दासजी के अभिमत से तीन प्रकार को 'तुल्ययोग्यता' भाषा-भूषण की भाँति ( १, जहाँ समवस्तुओं का एक ही धर्म कथन हो, २. जहाँ एक ही कम द्वारा हित-अनहित दोनों का समान फल कहा जाय और ३. जिस-तिस को, उन-उन समान कहा जाय, होती है। यथा- "तुल्लजोगता तीन ए, लच्छन म ते जौनि । एक सब्द में हित-अहित, बहु में एकै बाँनि ॥ बहु सों समता गुनँन करि, इहि विधि भिन्न प्रकार । गुन-निधि नोंक देति तू, तिय कों, परि कों, हार ॥" संस्कृत-अलंकार-प्राचार्यों का कहना है कि “जब अनेक प्रस्तुत-अप्रस्तुत पदार्थों का उनके औपम्य ( उपमेय-उपमान भाव ) के साथ एक धर्म से संबंध दिखलाया जाय वहाँ "तुल्ययोगिता" अलंकार होता है। यहां धर्म से गुण- कार्य दोनों का कथन है। यह केवल प्रस्तुत होने अथवा केवल अप्रस्तुत होने तथा उनके गुण वा क्रिया के कारण धर्मों की एकता होने से चार प्रकार की होती है। तुल्ययोगिता का अर्थ है-"तुल्य पदार्थों का योग । अतएव अनेक प्रस्तुत- अप्रस्तुतों का गुण वा क्रिया-रूप एक धर्म में योग (अन्वय) होने पर यह अलंकार माना जाता है। अनेक प्रस्तुतों ( उपमेयों) अथवा अप्रस्तुतों ( उपमानों ) के एक ही धर्म कहे जाने पर प्रथम, हित-अनहित में तुल्य वृत्ति-वर्णन, अर्थात् शत्रु-मित्र के साथ एक-सा वर्ताव किये जाने में द्वितीय तथा प्रस्तुत ( उपमेय) की उत्कृष्ट गुण वालों के साथ गणना की जाने पर तृतीय तुल्ययोगिता कही जाती पा०-१.(प्र. मु०) जेहि-जेहि के संम कहन...। २. (३०)(मा० जी०) (प्र० मु०) भूषन-हिं... । ३. (प्र० मु०), नियरक देह निवाहि । ।
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