काव्य-निर्णय १८७ जब वस्तुओं का संबंध विब-प्रतिबिंब भाव से निदर्शन किया जाय-निश्चय रूप से दिखलाया जाय तो 'निदर्शना' होती है, यथा- "संभवन्धस्तु संबंधोऽसंभवन्वाऽपि कुत्रचित् । पत्र विवानुर्विवत्वं बोधयेत् सा निदर्शना ॥" . अथवा-"अभवन्वस्तु संबंध उपमापरिकल्पकः” ( काव्य-प्रकाश) अर्थात् , वस्तुत्रों के असंभव संबंधों की उपमा जहां कल्पना की जाय वहां निदर्शना होती है। मम्मट की यह परिभाषा 'उद्भट से ली हुई है और निदर्शना माला की मान्यता रुग्यक-जन्य है, इत्यादि । ब्रजभाषा के भूषण भूषण कवि कहते हैं- "सहस बाक्य जुग अरथ को, करिए एक अरोप । भूषन ताहि निदर्सना', कहत बुद्धि दै अोप ॥ और इसके भेद - "एक क्रिया सों निज प्ररथ, और अर्थ को ग्याँन । ताहू सों जु 'निदर्सना, भूषन कहत सुजॉन ॥" तथा भाषा-भूषण रचयिता महाराज जसवंतसिंह जोधपुर कहते हैं- "कहिऐ त्रिवित्र 'निदसना , बाक्य-अर्थ-सम दोइ । एक बिसें पुनि और गुन, और बस्तु में होह ॥ कहिऐ कारज देखि कछु, भलौ-बुरौ फल-भाव ।" इत्यादि । अतएव संस्कृताचार्यों के अभिमत से निदर्शना के-जहाँ, वाक्य वा पद के अर्थ का असंभव संबंध उपमा का परिकल्पक हो वहां प्रथम' और 'जहां स्वरूप तथा उस ( अपने स्वरूप ) के कारण का संबंध अपनी क्रिया-द्वारा बोध कराये-अपनी क्रिया द्वारा दृष्टांत रूप में उसका कारण दिखलाये जाने पर 'द्वितीय निदर्शना' कही गयी है। प्रथम निदर्शना में जिस प्रकार असंभव का संबंध उपमा की कल्पना के श्राश्रित है-उसे वह कराती है, उसी प्रकार द्वितीय में संभावित संबंध उपमा की कल्पना कराती है। अस्तु, प्रथम निदर्शना के वाक्यार्थ और पदार्थ रूप से दो भेद तथा उनकी माला भी कही गयी है। कुछ प्राचार्यों ने निदर्शना-भेद रूप में -संभव वस्तु-संबंधा और असंभव-वस्तु-संबंधा नाम भी दिये हैं और. अंतिम-असंभव वस्तु संबंधा के पदार्थ-वाक्यार्य-वृत्ति रूप से दो भेद किये हैं। ये भेद एक वाक्यगत तथा अनेक वाक्यगत के नामांतर है, कोई पृथक संशा नहीं । ब्रज-भाषा के अलंकार प्राचार्यों ने जैसा कि दास जो ने कहा है--संभव-वस्तु-संबंधा के सत्-असत् अथ प्रकट करने के कारण चतुर्थ
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