पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२२०

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काव्य- निय १५ साधरॅम 'बसेस की दृढ़ता सामान्य ते जथा- कैसे फूले देखियतु' प्रात कमल के गोत । 'दास' ज्यों मित्र-उदोत लखि, सबै प्रफुल्लित होत ॥ वि०--"दासजी की इस उक्ति पर रहीम की एक उक्ति याद आ गयी है, देखिये वह कितनी सुंदर है, यथा- "सब ही कों सुख होत है, निरखि आपनों गोत । ज्यों बड़री अँखियाँनि लखि, भाँखिन को सुख होत ॥" वैधरम विसेसफ़ी दृढ़ता सामान्य ते जथा- मुंढ़ कहागथ-हाँनि की, सोच करत मल हाथ । आदि-अंत भरि इंदिरा, रही कोंन के साथ ॥ "इसके बाद वेंकटेश्वर प्रेर.वाली प्रति मे "निलक' शीर्षक के अतर्गत यह और लिखा मिलता है-'हे मुर्ख, तुम क्यों सोच करते हो, यह संसार में पुरुष जन्मते हैं, धनवान होते हैं, उनके पास आदि अंतभरि-लघमी नहीं रहती भतएव सोच करना अनुचित है। यह भी पूर्व की भाँति बेतुका है......" अथ विकस्वर अलंकार लच्छन जथा- कहि बिसेस सामान्य मुनि, कहिऐ बहुरि बिसेस । ताहि 'विकस्वर' कहत हैं, जिनके बुद्धि असेस ।। वि०-विशेष का प्रथम सामान्य से समर्थन कर पुनः उस सामान्य का समर्थन विशेष किये जाने पर 'विकस्वर' अलंकार कहा गया है, यथा-- “यस्मिन्विशेष सामान्य विशेषाः स विकस्वरः । चंद्रालोक श६६ विकस्वर का अर्थ है विकास और विकास का अर्थ है - "विकाशो विजने- 'स्फुटे" ( विजय कोष शब्द कल्पद्रुम)। "श्रतएव किसी विशेष अर्थ का सामान्य-अर्थ से किया गया समर्थन संतोष-प्रद न मान कर फिर उसे भली भाँति स्पष्ट करने के लिये दूसरे विशेष को उपमा या अर्थातरन्यास की रीति से समर्थन किया जाने पर उक्त अलंकार की स्थिति कही गयी है। संस्कृत-अलंकाराचार्यों ने भी उक्त विधि के अनुसार विकस्वर' के उपमा-द्वारा और अर्थातरन्यास-विधि से दो भेद माने हैं। दासजी ने इसका एक ही भेद द्विरूप से माना है।" पा०-१. (भा० जी०) देखिए । २. (३०) (प्र. मु०) दास मित्र- उपोत ( उद्दोत्त) लखि । ३. (३०) कहाँ मत .. | ४ (प्र०)(प्र०म०) को... ।