काव्य-निर्णय १८३ है और जहाँ समर्थक हेतु होता है वहाँ अर्थातरन्यास । इसी प्रकार जहाँ निष्पादक हेतु होता है, वहाँ काव्यलिंग अलंकार समझना चाहिये। अतएव कार्य-कारण भाव के कारण अर्था तरन्यास काव्यलिंग से भिन्न होता है । यही बात श्राचार्य 'रुय्यक' ने अपने 'अलंकार-सर्वस्व' के काव्यलिंग प्रकरण में कही है। किंतु पंडितराज जगन्नाथ' ने 'रसगंगाधर' के अर्थातरन्यास प्रकरण में और काव्य. प्रकाश (संस्कृत) को टोका 'उद्योत'कार ने तथा अप्पय दीक्षित ने 'कुवलयानंद' के अर्थातरन्यास-प्रकरण में-'कार्य-कारण के संबंध-द्वारा समर्थन में 'काव्यलिंग अलंकार' ही माना है, अर्थातरन्याप्त नहीं। इन महानुभावों का वहाँ कहना है कि 'वाक्यार्थ चाहे कांदासहित हो वा रहित, यदि कार्य-कारण के संबंध में भी अर्थांतरन्यास मान लिया जायगा तो काव्यलिंग और अर्थातरन्यास के उदाहरण दोनों आपसे घुल-मिल जॉयगे, इसलिये सामान्य-विशेष संबंध में अर्थातरन्यास और कार्य-कारण के संबंध में 'काव्यलिंग' मानना ही युक्ति-युक्त है। इसी प्रकार 'उद्भटाचार्य' के 'काव्यालंकार-सारसंग्रह' के फुटनोट में और बाबू बजरत्न दास के 'अलंकार-रत्न' में अर्थातरन्यास तथा दृष्टांतालंकार का पृथकत्त्व दिखल.ते हुए कहा गया है कि 'अर्थातरन्यास में समर्थ्य-समर्थक दोनों में एक विशेष और दूसरा सामान्य होता है, अर्थात् सामान्य का विशेष से एवं विशेष का सामान्य से समर्थन होता है --समथ्य-समर्थक भाव प्रधान रहता है और दृष्टांत में समर्थ्य-समर्थक दोनों सामान्य अथवा विशेष होते हैं। यहां सामान्य का सामान्य से और विशेष का विशेष से समर्थन होते हुए भी समर्थ्य-समर्थक भाव प्रधान न रहकर विंव-प्रति-वित्र भाव प्रधान रहता है। साधार म सामान्य को दृढ़ता विसेस ते उदाहरन जथा - जाको जासों होइ हित, वहे भलौ तिहिं 'दास' । जगत ज्वाल-मै जेठ-ही, जी सों चहें जबास ।। बरजत-हू जाचक जुरें, दाँनबंत की ठौर । करी करन-भारत रहे, तोऊ तजत' न भौंर ।। वि०--"ये दोनों उदाहरण क्रमश:-विशेष से सामान्य का साधर्म्य से समर्थन और सामान्य से विशेष का साधर्म्य से समर्थन रूप अर्थातरन्यास के हैं। पा०-१. (स० प्र०) तऊ भ्रमें तत भौर । ( भा० जी० ) तजत तऊ नहिं...। (३०) ऊ भ्रमत है भौर ।
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