१६२ काव्य-निर्णय अथ अर्था तरन्यास लच्छन जथा- साधारन कहिऐ बचनँ, कहु अबलोकि सुभाइ । ता को दृढ़ पुनि कीजिए, प्रघट बिसेसै ल्याइ । कै बिसेस-हीं दृढ़ करें" साधारन कहि 'दास'। साधरमी' वैधरँम हूँ, सो 'प्ररथांतरन्यास ॥ वि०--"अर्थातरन्यास अलंकार के प्रति सर्वमान्य परिभाषा है कि "जहाँ सामान्य का विशेष से और विशेष का सामान्य से साधर्म्य किंवा वैधर्म्य से समर्थन किया जाय तो वहाँ उक्त अलंकार होता है, यथा "सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते । यत्तु सोऽर्था तरन्यासः साधयेण तरेण वा ।" और 'भाषा-भूषण' के रचयिता कहते हैं- "सामान्य ते बिसेम हद, तब भग्यांतरन्यासु।" जो कि 'चंद्रालोक' संस्कृत का अनुवाद जैसा है । अस्तु, यहां साधारणतया- एक अर्थ सामान्य वा विशेष के समर्थन के लिये अन्य ( विशेष वा सामान्य) अर्थ रखा जाता है--अर्थात् सामान्य वृतांत का विशेष वृतांत से और विशेष वृतांत का सामान्य वृतांत से समर्थन किया जाता है। इन सामान्य-विशेष में प्रायः एक प्रकृत और दूसरा अप्रकृत होता है। इसलिये इस अलंकार को प्राचार्यों ने-'विशेष से सामान्य का साधर्म्य से समर्थन,' 'सामान्य से विशेष का साधर्म्य से समर्थन,' 'विशेष से सामान्य का वैधर्म्य से समर्थन' और 'सामान्य से वैधयं का वैधयं से समर्थन' श्रादि चार भेद किये हैं। दासजी ने इन चारों के उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इन (दोनों ) की माला भी मानी है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ने साहित्य-दर्पण ( संस्कृत ) के काव्यलिंग प्रकरण ( दशम परिच्छेद ६३ वा श्लोक ) में 'काव्यलिंग' और अर्थातस्यास अलंकारों की पृथक्ता का वर्णन करते हुए लिखा है कि "कई लोग कार्य-कारण भाव में अर्थातरल्यास नहीं मानते, वाक्यार्थ-गत काव्यलिंग से ही उसे गतार्थ समझते हैं सो ठीक नहीं, क्योंकि हेतु ( कारण )- ज्ञापक, निष्पादक और समर्थक तीन प्रकार का होता है। जहां ज्ञापक हेतु होता है वहाँ 'अनुमान' अलंकार होता ____पा०-१. (वे०) (प्र० मु०) पुनि दृ६...। २. (भा० जी०) बिसेस बनाइ। (वे.) विसेस बनाइ । ३. (सं० प्र०) (३०) करो...। ४.(सं० प्र०) (३०) साधस्महुँ बैधरमत है...। (प्र० मु०) सारमहि वैधर्म करि यह...।
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