१८० काव्य-निर्णय अथ साधरम को उदाहरन जथा- काँन्हर - कृपा - कटाच्छ की करै कॉमनों 'दास'। चातक-चित में चेत' ज्यों, स्वाँ ति-बूद की आस ।। पुनः दूसरौ उदाहरन जथा- और सों केतऊ बोले-हँस, पै पीतम की तुही प्यारी है प्रॉन की। कैतो' चुन चिनगी पै चकोर को चोप है केबल चंद छटॉन को ।। जौलों न तु, तब-ही लों अलो, गति 'दास' के ईस पै और तियाँन की। भास तरैयँन में तब लों, जब लों प्रघटै न प्रभा जग भाँन की । वि०-"दासजी के साधर्म्य-दृष्टांत के ये दोनों उदाहरण सुदर है। प्रथम का अर्थ स्पष्ट है, दूसरे में मानिनी नायिका के प्रति सखो वा दूती-द्वारा यह कहा जाना कि "नायक का तुझ पर ही मर्वोत्कृष्ट प्रेम है। अरी बावली, जब तक तू उनके पास नहीं जाती तभो तक उस (नायक) की अनुरक्ति दूसरो स्त्रियों पर है- अर्थात् जब तक भानु की प्रभा नहीं फैलती तब तक ही तारागणों की क्षीण-छाया दिखलाई देती है आदि..., बहुत सुंदर सूक्ति है । इस सुमधुर सूक्ति के साथ किसी कवि की यह नीचे लिखी रचना भी देखिये, जैसे- "है ये नायक दच्छिन छैन, सुतौ अनुकूल कियौ चितचोर है। है अभिमानी सो आपने रूप को, दोन है तोसों रहे निसि-भोर है। हैतन साँवरी, गोरी रंगो मैंन, तेरे ही प्रेम-परयो झकझोर है। है सुख-दायक नेनन-नागर, है प्रज-चंद, पै तेरी चकोर है।" -सुंदरी-तिबक एक बात और, वह यह कि दास जी के इस सुमधुर छंद को 'सुंदरी-तिलक'. कार भारतेंदु जी ने मान के, 'मनोज-मंजरी'-कार अजान कवि ने मानिनी नायिका' के और रसकुसुमाकर के कसी महाराज अयोध्या ने 'सखी-कृत शिक्षा के अंतर्गत संग्रह किया है।" पा०-१. (मा० जी०) बसत ज्यो...। (प्र० मु०) बसत है.... २. (भा० जी०) त्यो...। (३०) तो....३ (३०) (प्र० नु०) (सु ति०)...की त पियारी है ... (सं० प्र०), प्रियपीतम की है पियारी तू...। ४. (३०) (प्र०) (भा० जी०) केती। ५. (३० प्र० मु०) (म० म०) को चकोर पै.... ६. (मु० ति०) नहीं तु तोलो...। ___* सु० ति० (भारत दु) १३१, ४४५ । र० कु० (अयो०) पृ०, ५७, १३४ । म० म०- (अजा०) ५० ५६, २०७।
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