१७५ काव्य-निर्णय सरस • सिंगार • सुबरैन बर भून - सी, .. बनिता ज्यो' फषिता है कबिता उदार-सी ॥ वि०-"यहाँ" निरवयवा-(जहाँ एक उपमेय की अनेक उपमाएँ दी जाय) मालोपमा है, क्योंकि कविता रूप उपमेय को अनेक उपमानों से श्लेष- द्वारा अलंकृत किया गया है।" दृष्टांत अलंकार लच्छन जथा- बखें, बिंब प्रतिबिंब-गति, उपमेयोपमान । लुप्त सब्द बाचक किऐं, सो 'दृष्टांत' सुजॉन ।। पुनः भेद जथा- साधरॅमी बेधरॅम औ, वैसौई कहु धर्म । कहूँ दूसरी बात ते, जॉन पर सोई मर्म ॥ विo-" वहां उपमेय-उपमान वाक्यों के साथ उनके साधारण धर्मों का विब-प्रतिक्वि-भाव हो--वैषम्य होते हुए भी भाव-साम्य हो, वहाँ "दृष्टांतालंकार" कहा जायगा। विब-प्रतिबिंब-भाव उसे कहते हैं जहां वास्तव में भिन्न उपमान- उपमेय सादृश्य गुण के कारण एक से प्रतीति होते हुए भी पृथक्-पृथक् कथित हों। काव्य-प्रकाशकार महामहिम श्रीमम्मट कहते हैं-"दृष्टोडतो निश्चयो यत्र स दृष्टांतः।" अर्थात् जिस उदाहरण में निश्चय रूप से साधारण धर्मादि का प्रमाण देख लिया गया हो उसका नाम "दृष्टांत' है।" यह वहां-'साधर्म्य' और 'वैधर्म्य नाम से दो प्रकार का कहा गया है। कोई-कोई इसकी 'माला' भी मानते हैं। अतएव दास जी ने इन-साधर्म्य, वैधर्म्य और साधर्म्य की माला तीनों का ही वर्णन किया है। श्री पंडितराज जगानथ त्रिशूली ने अपने प्रमुख प्रथ 'रसगंगाधर' में कहा है कि "प्रतिवस्तूपमा और दृष्टांतालंकार में अधिक भिन्नता नहीं है, अतएव इनको एक ही अलंकार के दो भेद कहे जाने चाहिये, पृथक्-पृथक नहीं। किंतु प्रतिवस्तूपमालंकार में केवल साधारण धर्म का वस्तु-प्रति-वस्तु-भाव-एक धर्म शब्द-भेद-द्वारा दोनों में कहा जाता है और 'दृष्टांत' में-उपमेय, उपमान और साधारण धर्म इन तीनों का विव-प्रति-विंब भाव रहता है, अर्थात् उपमेय तथा पा०-१. (३०) (प्र० मु० ) की...। २. (३०) लखी...। (प्र० मु०) लखि विवा- प्रतिबिंब...। ३. (३०) (प्र० मु०) है...। ४. (३०) (प्र० मु०) साधर्मो-बेपरम सों, कह.... ५. (प्र० मु०) कहु बिसेस है धर्म । (सं० प्र०) कहुँ बिसेसतई...। ६. (प्र० मु०) कर होत सामान्य ते, जानत है जे मर्म ।
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