१७२ काव्य-निर्णय पुनः जथा- छुटे सदाँ गति सँग लसे, पानिप-भरे अमाँन । स्याँम-घटा सोहे भली, सुंदर कचन-समान ॥ अस्य तिलक "इहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय रूप में कलौ, ताते प्रथम प्रतीप है।" अथ अनादर बर्य प्रतीप उदाहरन जथा- विद्या बर बाँनी, दमयंती की सयाँनी, ___ मंजुघोषा-मधुराई प्रीति-रीति की मिलाई में। चख चित्रलेखा के, तिलोत्तमाँ को तिल लै, सुकेसी के सुकेस, सची-साहिबी सुहाई में । इंदिरा की उदारता भी माद्री की मनोहराई, ___'दास' इंदुमती की लै सुकमारताई में । राधे के गुमाँन में समान बँनिता न ताके, हेत ए' विधाँन इक ठाँव ठहराई में । अस्य तिलक इहाँ उपमान सों उपमेय को अनादर किया है। वि०-रसकुसुमाकर के संग्रह कर्ता अयोध्या के राजा ददुवा साहिव ने दास जी के इस छंद ( कवित्त ) को बालंबन विभाव के अन्तर्गत 'नायिका' के वर्णन में संकलित किया है।" दूसरौ उदाहरन जथा- महाराज रघुराज जू, कीजै कहा गुमाँन । दंड-कोस-दल के धनी, सरसिज तुम्हें समान IIt वि०-“यहाँ श्लेष से पुष्ट प्रतीप द्वारा श्रीराम और कमल (पुष्प) का समान वर्णन करते हुए भी दंड, कोप, और दल के श्लेष-संयुक्त अर्थों-द्वारा कुछ न्यून वर्णन किया है -उपमेय कमल से उपमान श्रीरामचन्द्र जी को कुछ न्यून बतलाया गया है।" ___पा०-१. (मा० जी०) (३०) (प्र० नु०) के...! २. (३०) (प्र० न०) दिरा-उदारता...। ३. (३०) (प्र० नु०) या . । ४. (भा० जी०) (३०) (प्र० मु०) तुम्हें... ।
- र० कु. (प्रयो०) पृ० मम, २२६ । * सू० स०(ला० म०) पृ० ६१, ६४ ।