काव्य-निर्णय १६॥ श्लिष्टा-शुद्धा, मालोपमा, अश्लिष्टा-शुद्धा और मालारूपा-श्रादि भेद करते हुए इनके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। अथ लुप्तोपमा जथा- समतादिक जे च्यारि हैं, तिन' में 'लुप्त' निहारि । ___एक, दोइ भी तीन-लों,' 'लुपतोपमाँ' बिचारि ॥ वि०-"उपमा के समतादिक जो चार - "उपमेय (वह वर्णनीय वस्तु जिसकी दूसरी वस्तु से समता दी जाय), उपमान ( वे वस्तुएँ जिनसे उपमा दी जाय-समता दिखलायी जाय ), वाचक ( समता प्रकट करने वाले शब्द-सा, सी, से और सौ श्रादि...) अंग हैं, उनमें से जहाँ एक, दो वा तीन का वर्णन न किया जाय, वहीं 'लुप्तोपमा' कही गयी है । अतएव लुप्तोपमा के-धर्म-लुप्ता, उपमान-लुप्ता, वाचक-लुमा, वाचक-धर्म-लुप्ता, धर्मापमान-लुप्ता, वाचकोपमेय-लुप्ता, वाचक-उपमान लुप्ता, धर्म-उपमान-वाचक-लुप्ता-श्रादि भेद होते हैं, जिन्हें प्रागे दासजी ने वर्णन किया है।" प्रथम धरैम-लुप्तोपमा जथा-- देखि कंज-से बरबर्दैन,' हग खंजन-से 'दास'। पायौ कंचन-बेलि-सी, बनिता सग बिलास ॥ वि० "यहाँ नायिका के अंग से कंज (कमल), खंजन (पक्षी) और कंचन ( स्वर्ण ) का क्रमशः धर्म--कोमल, चंचल और सुंदर वर्ण का वर्णन नहीं किया है, इस लिये यह धर्मलुप्तोपमा का उदाहरण है। ____ दासजी निर्मित इस दोहे के हस्त-लिखित प्रतियों में विभिन्न पाठ मिलते हैं, जैसे-"देखि कंज से बर-बदन"..., और "देखि कंज से बदन-बर"...तथा "देखि कंज से बदन पर"...श्रादि...। प्रथम एक-दो के पाठ-भेद में कोई विशेषता नहीं है, पर यदि तृतीय पाठ माना जाय तो कवि को इस सुमधुर सूक्ति में चार चांद लग जाते हैं, क्योंकि कमल ( मुख पर बैठे हुए खंजन (ग) का दर्शन शकुन शास्त्र के अभिमत से सर्व श्रेष्ठ कहा गया है, जैसा कि महाकवि कालिदास ( संस्कृत ) कहते हैं- पा०-१. (सं० प्र०) ता में...। २. (प्र०-३) की ..। (३०) एक, दोइ के तीन- तो,...। ४. (भा० जी०) बर्दैन बर । (३०)(प्र० मु०) बर्दैन बर। ५. (प्र०-३) पाई...। ६. बैंकटेश्वर की प्रति में इस दोहा के अनंतर-"या में काव्यलिंग को संकर है। ये अधिक लिखा है।
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