पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१९७

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१६२ काव्य-निर्णय रॉम, असि राबरे की रैन में, नरैन में, निलज बनिता-सी होरी खेलॅन लगति' है. वि०-"दासजी कहते हैं-म्यान-रूप घर से निकल कर राम-राजा की तलवार अरि रूप मर्दो (पुरुषों ) के झंडों में पैठती हुई अनेक मुखों से प्रेम करती है। जिसे पाती है दौड़ कर लाल करती हुई अंक-लग कर कंठ से लगने को चाहना करती है, क्योंकि उसमें बारबनिता (वेश्या ) जैसे विविध गुण (धर्म)-चमकना, झमकना, ठमकना, जमकना, दमकना और तमकना श्रादि प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ते हैं।" दास जी की यह रचना 'चंद्रालोक' ( संस्कृत ) की निम्न-लिखित सूक्ति से सुरभित है, जैसे- "कामिनीव भवत्खडग लेखाचार करालिका । काश्मीरसेकारक्तांगी शत्रुकंठांतिकाश्रिता ॥" -चंद्रालोक ५, १०। ___ तथा रसकुसुमाकर के संग्रहकर्ता ने 'रस-निरूपण' के अंतर्गत और सूक्ति- सरोवर के संग्रहकर्ता ला० भगवानदीन ने तलवार वर्णन के प्रसंग में संग्रहीत किया है।" अथ मालोपमा लच्छन' जथा- कहुँ भनेक की एक-हो,' कह ज एक नेक । कहूँ अनेक-नेक की, 'मालोपाँ' बिबेक । वि० - "जहां एक-ही उपमेय की अनेक उपमानों से सादृश्यता-बराबरी दिखलायी जाय, अर्थात् उपमानों की माला-सी पिरोयी जाय, वहाँ 'मालोपमा' कही जाती है। यह मालोपमा - एक की अनेक धर्मों से, अनेक को एक धर्म से, भिन्न-भिन्न धर्मों से, केवल ( क धर्म से और अनेक की अनेक धर्मों से आदि पांच प्रकार की कहो गया है। इसी प्रकार अलंकार-श्राचार्यों ने इसे 'अभिन्न धर्मा (जब संपूर्ण उपमानों का एक ही धर्म कहा जाय ), मिनधर्मा (जहाँ प्रत्येक उपमान का भिन्न-भिन्न धर्म कहा जाय) और लुप्तधर्मा (जहाँ धर्म न कहा पा०-१. (सं० प्र०) चलति । २. (३०) अथ पूर्णोपमा लक्षण । ३. (३०) (मा० जी०) (प्र० मु०) है । ४. ( सं० प्र०) (३०) कहुँ एक की अनेक। ( भा० जी०) (प्र० मु.) कहुँ है एक अनेक ।

  • र० कु० (अयोध्या) पृ० ११,१२ । सू० स० (ला० भ० दी०) पृ० ४००,३६ ।