पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१९५

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१६० काव्य-निर्णय औपम्यमूल इस सादृश्य के दो भेद-दृश्य-वाच्य और सादृश्य-गम्यमान्, अर्थात् छिपा हुश्रा सादृश्य और माने गये हैं। सदृश्य-वाच्य अलंकार- 'उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, असम, स्मरण, रूपक, परिणाम, संदेह, भ्रांति, उल्लेख, अपन्हुति, उत्प्रेक्षा ( केवल भेदक, रूक और संबंध ) तथा प्रतीप और इसी प्रकार 'स दृश्य गम्यमान् अलंकार -'तुल्ययोगिता, दोपक, प्रतिव- स्तूपमा, दृष्टांत, उदाहरण, निदर्शना, व्यतिरेक, समासोक्ति, अस्तुतप्रशंसा, पर्यायोक्ति, अर्था तरन्यास, व्याजस्तुति, आक्षेप, विकस्वर, सहोक्ति तथा विनोक्ति' कहे जाते हैं। अस्तु, दासजी ने इन सादृश्य वाच्य और सादृश्य गम्यमान् उभया- स्मक अलंकारों में मुख्य बारह अलंकारों को प्रधान मान प्रथम वर्णन किया है । उपमा का प्रथम उल्लेख संस्कृत से लेकर विविध भापात्रों के सभी अलंकारा- चार्यों ने किया है । यह क्यों ? इसके लिये कहा जाता है कि वह अनेकानेक अलंकारों में मूल रूप से रहकर काव्य-सौंदर्य को अधिकाधिक सहारता पहुँचाती रहती है, जैसा अलंकार-सर्वस्व के कर्ता कहते हैं- ___ "उपमैवानकप्रकार वैचित्र्येणानेकालकारबीजभूता।" यही नहीं, यदि सत्यरूप से कहा जाय तो 'उपमा' कवि की वह भाय दृष्टि है जिससे कवि को चराचर जगत का मधुर दर्शन प्राप्त होता रहता है। उपमा- साधना तो कवि की समदृष्टि-साधना है, जिससे मौंदर्य की सिद्धि होती है और यही उपमा का महा रहस्य है। प्रथम उपमा लच्छन जथा- जहँ' उपमाँ-उपमेइ है, सो उपमाँ-बिस्तार । होत भारथी-सौतियो, ताके' द्वै जु प्रकार ॥ बरननीय उपमेइ है, सँमता उपमाँ जाँन । जो है आई आदि ते, सो 'आरथी' बखाँन ।। वि.--"जब दो पदार्थों के समान-धर्मों को उपमान-उपमेय-भाव से कथन किया जाय-किसी प्रकार की भिन्नता प्रकट न करते हुए, सादृश्य दिखलाया जाय, तब वहाँ 'उपमा' अलंकार कहते हैं। इस उपमा के श्रौती ( शाब्दी) और प्रार्थी नाम से दो भेद होते हैं।" पा०-१. (भा० जी० ) जहां " । २. सं० प्र०) (प्र. ) ताको... .. 1 (३०) (प्र० म ० ) ताको दोह... ।