पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१९३

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अथ अष्टमोल्लास: उपमादि अलंकार बरनन जथा-- अलंकार-रचनौँ बहुरि, करों सहित बिस्तार । एक-एक के होत हैं, भेद अनेक प्रकार ।। कवि-सुघराई को कहें, प्रतिभा सब कबिराइ । ता' प्रतिभा के होत हैं, तीन प्रकार सुभ भाइ५ ॥ सब्द-सक्ति, प्रौढोक्ति औ, सुतसंभवी चारु । अलंकार छवि पावते, कीन्हें त्रिविध प्रकारु ।। बड़े छंद में एक-ही, भषन को विस्तारु। करों पँनेरौ धरॅम अँनि, कै' माला सजि चारु ।। अवर' हेतु नहिं केवलै-हिं, अलंकार निरबाहि । कवि, पंडित गॅनि लेति हैं, अवर' काव्य में ताहि ।। रुचिर हेतु रस को बहुरि, अलंकार-जुत होइ । चमत्कार जन'३ जुक्ति है, उत्तम कबिता सोह ।। पा०-१. (प्र०)(सं० प्र०) (३०) (प्र० नु० ) पर । २. (प्र. मु०) जहें.. । ३. ( सं० प्र०) जुक्ति .. | ४. (३०) (प्र० मु० )तिहिं ( तहि ) प्रतिभा को होत... । (सं० प्र०) तिहि प्रतिमा को कहतु हो । ( भा० जी० ) सो' । ५. वेंकटेश्वर की प्रति में-'अरय तिलक' रूप में यह विशेष लिखा है-'भो प्रतिमा जो है ताकों ग्रथ-कर्ता तीन प्रकार की कयौ। एक प्रतिभा-सम्द-सक्ति त होति है, दूसरी प्रतिभा यादि-प्रौढोक्ति करिके होति है, तीसरी प्रतिभा मुत संभवी जानिऐ । ६. ( भा० जी० ) (३०) (प्र० मु०) पावतो, कीन्हों । ७. ( भा० जी० ) एक कहि," । (३०) बद-भरे में एक ही...। य. ( भा० जी०) (३०) मनि.. । (प्र० मु० ) में .. 1 (प्र०-३) जो... । (रां० प्र०) ( लो० ) गनि... | ६. (प्र० मु०) इक" | १०. (३०) और'" । ११. (प्र०) (०)(प्र. नु० ) केवलै। १२. (३०) और "" । १३. (प्र.) (प्र० सं० ) (३०) (सं० प्र०) गुन-जुक्तः ।