पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१८८

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काव्य-निर्णय सिद्धांग' नाम से दो भेद किये हैं। दासजी का यह उदाहरण 'वाच्य-सिद्धांग' का है, क्योंकि यहां बादल को सर्प बनाया गया है और इन दोनों (बादल और सर्प) के गुणों में समता लाने के लिये 'वि' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिससे बादल का सर्प होना सिद्ध हो और यह अर्थ तब तक सिद्ध नहीं होता, जब तक जल में विष की व्यंजना न हो। विष का अर्थ तरल होने के कारण जल बत नाकर अभिधा रुक जाती है, और व्यंजना से विषका व्यंग्यार्थ जल रूप 'जहर' प्रतीत होने पर वाच्यार्थ की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि विष सर्प में होता है, वादल के संबंध में विष का अर्थ जल होगा। अतएव यह विष रूप जल ही बादल का सर्प होना सिद्ध करता है, विरहणी का दुःख व्यंग्य है। अर्थात् मेघ रूप भुजंग का विष ( जल ) अत्यंत विषय है। वह वियो- गिनियों को मारने वाला है, मरण का कारण है, शरीर को जला देता है। दासजी का यह दोहा संस्कृत 'काव्य-प्रकाश' की इम सरस सूक्ति का अनुवाद है, यथा- "भ्रमिमरतिमलसहृदयतां प्रलयं मूच्छी तमः शरीरसादम् । मरण च ज जद भुजगजं प्रसह्य कुरुते विपं वियोगिनीनाम् ॥" अस्तु, यहाँ भी विष शब्द का अर्थ हलाहल ही है, जो भुजंग रूप वाच्यार्थ की सिद्धि का उपकारक है।" द्वितीय भेद 'परबाच्य' उदाहरन जथा- स्याँम-सक पंकज-मुखी, जकै निरखि निसि-रंग। घोंकि भजै, निज छाँह तकि, तजैन गुरुजन-संग। श्रस्य तिलक इहाँ स्याँमता की संका बिजित होत है, सो नायक की संका छोरि के प्रयोजन नहिं नायक परब व्यसिद्धांग है। वि०-"अर्थात् रात्रि, परछांही और नायक ( श्रीकृष्ण ) तीनों का वर्ण श्याम है, अस्तु अपनी परछांही और काली रात्रि को देखकर मुग्धा नायिका का भयमीत होना 'परवाच्य-सिद्धांग गुणीभूत व्यंग्य है। किसी कवि का निम्न- लिखित छंद भी इस व्यंग्य का सुंदर उदाहरण हो सकता है, यथा- "कोकिल भुक हुँने उमगे मन, और सुभाइ भयो अब ही को। फूख जता-दम, कुल सुहात, बगै अलि-गुंजन भौमती जी की।