पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१८७

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१५२ काव्य-निर्णय अस्य उदाहरन जथा - जहँ मॅन में सुरेंन दिन, तहीं रहो करि भोंन । इन बातँन पै प्रॉन-पति मॉन-ठानती हो न ॥. __ अस्य तिलक इहाँ नायिका मान किऐं-ही है, नाँहि कियो कथन ते 'काकु' है। वि०-“सही बात को मुकरना 'काकुक्षिप्त गुणीभूत व्यंग्य' कहा जाता है । काकु एक प्रकार की उक्ति है-कहने का ढंग है, जिसके द्वारा कहे हुए शब्दों का अर्थ वक्ता के कथन के साथ-ही वाच्यार्थ के विपरीति अर्थ में परणित हो जाता है । यह व्यंग्य इसलिए गौण है कि सहज-ही तत्काल जान लिया जाता है, जैसा कि 'दासजी' के उदाहरण में--'मान नहीं करती.. कहने पर भी उसा ( नायिका ) का मान सहज-ही भापित हो रहा है। इसी प्रकार धीरा नायिक का उदाहरण 'रघुनाथ' कवि का भी सुंदर है, यथा- "बहु नाइक हो, सब लाइक हो, सब प्यारिन के रस को लहिऐं। 'रघुनाथ' मने नहि कीजै तुम्हें, जिय-बात जु है सुमही कहिऐ ॥ यै माँगति हों पिय-प्यारे सदा, मुख देखिबे कों हमें चहिऐ। इतने के लिऐं इन आईऐ प्रात, रुचै जहँ रात तहाँ रहिए ॥" -सुंदरी-सरोज (मन्नालाल ) षष्ठ बाच्य-सिद्धांग बरनन जथा- जा लगि कोजतु व्यंग सो२ बात-हि में ठहरात। कहत 'बासिद्धांग' को अर्थ सुमति अवदान' ॥+ अस्य उदाहरन जथा- बरखा-काल न लाल गृह-गोन करो किहि हेत। ब्याल बलाहक बिष-बरखि, बिरहिन को जिय लेत ॥ __ अस्य तिलक इहाँ विष जल-हूँ को कयौ, भी ब्याल-हूँ कों कयौ, नाते 'बाच्य सिद्धांग' है। वि०.-"जहाँ व्यंग्य वाच्यार्थ की सिद्धि करता हो वहाँ वाच्य-सिद्धांग व्यंग्य कहा जाता है। इसके संस्कृत के प्राचार्यों ने वाच्यसिद्धांग' और 'परवाच्य. पा०-१. (प्र.) (प्र० मु०) (व्यं० म०) जहाँ रमें मन रेन-दिन...(सं० प्र०) (३०) नहीं मन-रमें... | २. (सं० प्र०) सोइ । ३. (प्र०) (प्र० मु०) तिहिं । ४. (सं० प्र०) प्रौदात । ५. (३०) गोन। t, मं० (ला० म० दी०) पृ०६५ ।