१५१ काव्य-निर्णय अस्य तिलक इहाँ ( विशेष ध्यान देने पर परकीया ) नायिका निसंक (एकांत में ) मिज़बे के स्थान की बिनै करति है, 'प्रस्फुट व्यंग' है। वि०-"अस्फुट व्यंग जहाँ व्यंग्य कठिनता से दिखाई पड़े" कहा जाता है। यहाँ “देखें हूँ दुखित, अनदेखें हूँ दुखित है' का कारण स्पष्ट नहीं, विशेष ध्यान देने पर ही जाना जाता है कि यहाँ नायिका परकीया कहीं वा कभी एकांत में मिलने के लिए विनय कर रही है, यह अस्फुट है, कठिनता से जाना जाता है । दासजी का यह छंद 'काव्य-प्रकाश' ( संस्कृत ) के पांचवे उल्लास श्लोक- संख्या १२८ वे का सुंदर अनुवाद है । यथा- "अदृष्ट दर्शनोत्कंठा दृष्ट विच्छेद भीरुता। ना दृष्टन न दृष्ट न भवता लभ्यते सुखम् ॥" अस्तु, श्राप इस अल्प उक्ति को, जो अपने कहने के ढंग में सुंदर है, विराद बनाते हुए वह बाँकपन न ला सके जो संस्कृत सूक्ति में है। यह कार्य तो कवि विहारी ने ही किया है, उसने भी दो लाइन के हम (अनुष्टुप ) छंद को अपनी दोहे की दुनाली में भरा है, और खूब भरा है, यथा- "इन दुखिया अखियाँनि को, सुम्ब सिरज्यौ ही नाहिं। देखत बनें न देखते, बिन देखें अकुलाहिं ॥" - सतसई अतएव विहारी के इस दोहा रूप रत्न को भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने स्व-नि- मित कुंडलिया रूप कुंदन ( स्वर्ण ) से कलित-खचित किया है, यथा- "बिन देखें भकुलाँहि, बिरह-दुख भरि-भरि रोघे । खुली रहें दिन-रेन, कबहुँ सपने नहिं मोवें ॥ 'हरिचंद' संजोग-बिगह-सन दुखित सदा-ही। हाइ, निगोडी भाँखियन को सुख मिरज्यो-हि नाही॥" -भारतेंदु-ग्रंथारली भाग २ पंचम काकुछिप्त ब्यंग बरनन जथा- सही बात जहँ' काकुते', जहाँ नहिं दरसाइ। 'काकुछिप्त" सो व्यंग है, जॉन लेउ कबिराइ ।। पा०-१. (भा० जी०) ते...। (३०) सही बात ते काहु कों। (प्र० मु०) सच बात कों काकु ते । ३. (३०) (प्र०) करि जाइ। (प्र०-३) कहि जाइ । ४. (३०) कावक्षिप्त .. ।
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