पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१८५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५० काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन कबित्त जथा- पाभरन-साज बैठौ, ऐंठौ जिन भोंहें लखि,' । ____ लालँन कहोगे प्यारी कला जैसी चंद की। सुंदरि सिंगारन बनाइवे के ब्योंतन' तिलोत्तमाँ-सी ठहरै हों सोंहें सुखकंद की । 'दास' बर ऑनन उदास में है देखिके, कहोगे ज्यों कमल सो है बॉनो नँद-नद की। यों-ही परखति' जात उपमाँ की पंगति, हों । संगति अजहुँ तजौ मॉन मतिमंद की। अस्त्र तिलक इहाँ नपिका को मॉन-छुड़ाइयो याच्य भौ वाको सोभा बरनियो व्यंग दोऊ प्रधान है, अर्थात् दोनों बराबरि हैं, ताते 'तुल्य प्रधान गुनीभूत ब्यंग है। अथ चतुर्थ अस्फुट व्यंग बरनन जथा- जाकी' व्यंग कहे बिन, ब्यंग न श्राबै चित्त । जौ आबै तो सरल ही, 'असफुट' सोई मित्त ।। अस्य उदाहरन जथा- देखें दुरजन संक' गुरुजन सकन सों, हियो अकुलात हग होत' • ना तुखित हैं । अनदेखें होत' मुसकाँनि-बतरॉनि मृदु, बॉनिऐं तिहारी दुखदाँनि बिमुखित है ।। 'दास' धुनि ते हैं जे वियोग-ही में दुख पा.२, देख प्रॉन-पी के होत जिय में सुखित हैं । हमें तौ तिहारे नेह एकहूँ न सुख-लाहु' देख हूँ दुखित, अनदेख हूँ दुखित हैं ।।* पा०-१.(प्र०-३) लाल, लखि के कहोगे...। २. ( भा० जी० ) (३०) न्योत में...| ३. (भा० जी०)..जु के कहे-ही, जो कॉल...(३०). जु देखिके कहे-ही जो, कमल...। ४. (प्र० मु०) परसति...। ५. (प्र० मु०) पांतिन्ह हां...। ६. (१०) जाको...। ७. (प्र०म०) बेगि...। (प्र०-३) जहां न व्यंग कहे बिन यंग न...| R. (प्र०-३) सहज-ही। ६. (प्र० मु०) संग.... (प्र०-३) देखें गुरजॅन-सँग दुरजैन-सन सो.. । (रा० स०) देखत दुर्जन संग गुरजॅन-संकनि सो...। १०. (सं० प्र०) होती...। ११. (प्र० मु०) हूँ ते...! १२. (३०) देखो...। १३. (प्र०-३) लाल...।

  • , न्य० मं० (ला० भ०) पृ०६४ ।