पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१८४

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काव्य-निर्णय १४६ मूलक संलंचयक्रम के वाचांगभूत होने की अपरांगता-श्रादि कई प्रकार का कहा बाता है।" अस्य उदाहरन जथा- सँग लै सीता' लच्छमँन, देति कुवलय-हिं चाब । राजत चंद-सुभाब सौ, श्री रघुबीर-प्रभाव ।। . अस्य तिलक इहाँ 'उपमा-भलंकार' सन्द-सक्कि सों दृढ करति (होत) है। वि०-"अर्थात् दासजी ने यहाँ श्री रघुवीर के प्रभाव की उपमा 'चंद-सुभाव' से देने के लिए सीता-चंद-संबंध में 'शीतलता' और राम-मंबंध में 'जनक-सुता' तथा 'लच्छमन'-चंद-संबंध में कलंक और राम-संबंध में भाई लक्ष्मण रूप शब्दों की शक्ति से काम लिया है, अतएव यह अपरांम नामक गुणीभूत-व्यंग्य है।' तृतीय तुल्यप्रधान ब्यंग बरनन जथा- चमत्कार' में बाच्य औ ब्यंग बराबर होइ । वो ही 'तुल्यप्रधान' है, कहें सुमति सब कोइ ।। उदाहरन जथा- माँनों सिर-धरि लंकपति, श्री भृगुपति की बात । तुम करि हो तो करहिंगे, वे हू द्विज उतपात ॥ अस्य तिलक इहाँ पे ब्यंग है कि तुम्ह ( लंकपति-रावण ) हूँ हिज भौ परसराम हूँ द्विज (ब्राह्मण ) सो मारेंगे, बाप-बराबर व्यंग भयो, अर्थात् वाच्यर्थ ते व्यंग्यार्थ में अधिक चमत्कार नाही-बराबर है। पा०-१. (वे. (प्र० मु०) सीत- हि, लच्छमन-हि... 1 (सं० प्र०) सीता-लच्छन हिं." | २. (सं० प्र०)(प्र. मु०) (३०) चमत्कार में व्यंग भरु वारय...। ३. (प्र० मु०) तुल्य प्रधान सुग्यंग है, कहै सकल कवि लोइ । ४. (सं० प्र०) (३०) (प्र० मु०) मानी...! ५. (३०) वाऊ... व्य मै० (ला० भ०) पृ०६३ ।