अथ सप्तमोल्लासः अथ गुनीभूत ब्यंग-लच्छन बरनन जथा- जा 'व्यंगारथ' में कछु,' चमतकार नहिं होइ । 'गुनीभूत' सो'ब्यंग है, मध्यम-कान्य हिं सोइ ।।. वि०-"अर्थात् जिस व्यंग्याथ में वाच्यार्थ से अधिक चमत्कार न हो, उसके बराबर वा न्यून चमत्कार हो, वाच्यार्थ प्रधान हो और व्यंग्यार्थ गौण हो, उसे 'गुणीभूतव्यंग्य' कहते हैं, जो मध्यम काव्य है। गौण का अर्थ है, अप्रधान- और गुणीभूत का अर्थ है-'गौण हो जाना - अपधान वन जाना । अतएव वाचार्थ से गौण होने का तात्पर्य है, और जैसा पूर्व में (ऊपर ) कहा है कि 'व्यंग्य का वाच्यार्य से अधिक चमत्कृत न होना । धनि और गुणीभूत व्यंग्य में भेद दिग्वलाते हुए साहित्य-रीति के प्राचार्यों ने कहा है कि ध्वनि में वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ प्रधान होता है और गुणीभूत व्यंग्य में व्यंग्याथ से वाच्यार्य की प्रधानता होती है, यथा-- "प्रकारोऽन्यो गुणीभनव्यंग्यः काम्यस्य दृश्यते । यत्र व्यंग्यान्वये वाच्य वारत्वं स्यात प्रपंवत् ॥" -व० पृ. ३५, अतएव गुणीभूत-व्यंग्य के-'अगूढ, अपरांग, तुल्य प्रधान, अस्फुट, काकुक्षिप्त वाच्य सिद्धांग, संदिग्ध और असुदर श्रादि जैमा दासजी ने निम्न (नीचे) छंदों में कहा है, अाठ मेद होते हैं। अगढ़ व्यंग्य के दासजो ने दो भेद -'अर्थातर- संक्रमित' और 'अत्यंततिरस्कृत' नाम से और माने हैं। इन्हीं को 'लक्षणामूलक' तथा 'अर्थ-शक्तिमूलक' अगूढ व्यंग्य भी कहा है, जो शास्त्र-रीति से उचित है। अथ गुनीभूत ब्यंग-भेद कथन जथा- ___ सोरठा गुन' अगूढ, अपरांग, तुल्य प्रधान औ अस्फुट-हि। काकु बाच्य-सिद्धांग, संदिग्ध हि औ असुदर-हि ।। पा०-१ (प्र० मु० ) व्यंगारय में कछु । २. (सं० प्र० ) स्वै। ३. (प्र०) (सं०) (प्र० मु०)(३०) काग्यौ । ४. (प्र० मु०) गनि | ५. (सं० प्र०)(प्र० मु०) (३०) तुल्य प्रधानों." । ६. ( सं० प्र०) तुल्य प्रशानौ अस्फुटौ। ७. (प्र०) (प्र० मु०) (३०) काकुवाच्य | (सं० प्र०) कहूँ वाच्य-सिद्धांग। ८, (सं० प्र०) (०) (प्र० मु०) संदिग्धौरु असु दरो (३०) सदिग्धी अरु सुदरी।
- न्यं० ० (ला० म० दी०)पृ० ५६ ।