पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१७९

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१४४ काव्य-निर्णय वि०-"अर्थात् इस छंद में-अँध्यारिन, अटक्यौ, पटोर की बाड़, बाबरी और मधु-श्रादि पद-वाक्यांश विशेष में ही चमत्कार है।" पुनः पद-गत (शब्द गत) धुनि जथा- हों गॅमारि, गाँम-हिं बसौ', कैसौ, नगर कहंत । पै जाँन्यों आधीन कै. नागरोंन को कंत ।।. अस्य तिलक इहाँ 'नागरीन' बहु बचन-ही भल्यो, एक बचन 'नागरी' नाहीं । अथ सुयंलच्छित रस-ब्यंग बरनन जथा- कर प्रचंड़ी चंडिका, तकत नेन-तरेरि। मूच्छे, मूच्छे भूपर परे, खग्ग" रहे जी घेरि ॥ अस्य तिलक- इहाँ रौद्र-रस है, जो उद्धत्त बरनँन सों प्रघट है । धुनि-संख्या कथन जथा- द्वै अबिबच्छित बाच्य औ रसै ब्यंग इक लेखि । सब्द-सक्ति है आठ पुनि, अर्थ-जुक्त अबरेखि ।। उभै सक्ति इक जोरि पुनि तेरह सब्द-प्रकास । इक प्रबंध-धुनि पाँच पुंनि, सुग्रलच्छ गुनि 'दास' ।। ए सब तेतीस जोरि दस, ब्यक्त-आदि मुनि ल्याइ । तेतालीस प्रकास धुनि, दींनी मुख्य गिनाइ ।। सब बातन, सब भूषनन, सब सकरन मिलाइ। गुनि, गुनि गननाँ कीजिए, तो अनंत बढ़ि जाँइ ।। पा०-१. (सं० प्र०) (३०) बसो...। २. (सं० प्र०) कैसे . । ३. (भा० जी०) (३०) करि...। ४. (प्र०) (सं० प्र०) गधर रहे जो...। (३०) गगर रहें जु...। ५. (प्र०)(सं० प्र०)(३०) रस-व्यंगी...। ६. (प्र०) (३०) सक्ति...। ७. (३०) गुरु...। २. (३०) वक.... ६. (३०) दीन्हों मुख्य गेंनाइ....

  • व्यं० म० (ला० भ०) पृ० ५७५८ ।