काव्य-निर्णय १४३ अस्य तिलक इहाँ (सन्दन) की पुनिरुक्ति में ही चमत्कार है, और भाँति नाहीं। वि०-"अर्थात् कवि का कथन है कि यहाँ-"सुनि-सु नि, धुनि-धु नि, लुं नि-लुनि, नि-पुनि, चुंनि-चुंनि, भुनि- नि, गुँ नि-नि और हुँनि- हूँनि-श्रादि शब्दों में ही नायिका के विरह-जनित दुःख की अधिक अव्यक्ति लक्षित होती है-उक्त शब्दों को पुनरुक्ति में ही चमत्कार अधिक व्यंजित होता है, अन्य प्रकार नहीं। नायिका प्रोपितपतिका, यथा- प्रिय जाको परदेस में, 'प्रोपितपतिका' सोइ । उदित उदीपॅन तें जु तन, सतापित अति होइ ॥" -म० मं० (भजान) पृ०५६, प्रोपितपतिका का उदाहरण 'ग्वाल' कवि का भी निरखने लायक है, यथा- "मेरे मन-भावन, न पाए सखि साबन में, तावन लगी है लता लरजि-लरजि के। चूद कबों रू'दें, कबों धारे हिय-फारें दैया, बीजरी हूँ वारें हारी बरजि-बजि के॥ ग्याल कवि' चातकी परम पातकी सों मिलि, मोर-हूँ करत सोर तरजि-तरजि के । गरजि गए जे घन, गरजि गए हैं भला, ___ फेरि ए कसाई आए गरजि-गरजि के॥" सुयंलच्छित पद-गत धुनि बरनन जथा- बार-अँध्यारिन में भट कयौ जु', निकारौ में नीठि सुबुद्धिन सों घिरि । बूड़त आँनन-पाँनिप-नीर, पटीर की आड़ सों तीर लग्यौ तिरि ॥ मो मँन बाबरौ यों-ही हुतो', अधरा मधु-पॉन के मुंद छक्यौ फिरि । 'दास' कह्यो' अब कैसे कढे, निज चाँड़ सोंठोढ़ी कीगाढ़ पर्यो गिरि ॥ अस्य तिलक इहाँ पटीर की आह ही भली, जो बूइते कों काठ ( काष्ठ-तरने का सहारा) मिलत है, केसर-रोरी की आड़ नाहीं भली। पा०-१. ( भा० जी० ) हु। (प्र०) (प्र० मु०) स्व... (३०) हों...। २. ( सं०- 'प्र. ) भीर...। ३. ( भा० जी० ) (वे. ) हुत्यौ...! ४. (प्र०)(प्र० मु० ) भने... । ५. (प्र०)(प्र. मु०) चाह...।
- व्यं० म० (ला० भ०) पृ० ५६, ५७।