१३८ काव्य-निर्णय चढ़ा है, अतएव व्यतिरेकालंकार व्यंजित है। विहारीलाल ने दासजी से पूर्व इसी बात को बड़े सुंदर ढंग से कहा है, यथा- "चित-बित बचत न, हरत हठि, लालँन-हग बरजोर । साबधान के बटपरा, ए जागत के चोर ।।" कवि-प्रौढोक्ति बस्तु ते बस्तु ब्यंग जथा- रॉम, तिहारौ सुजस जग, कीन्हों सेत इकंक । सुरसरि-मग अरि-अजस सों, कोन्हों भेंट कलंक । अस्य तिलक इहाँ 'सुरसरि-मग' ते ये ब्यजित भयो, जो जस को कलंक न धोइ सक्यो । कवि-प्रौढोक्ति बस्तु ते अलंकार ब्यंग जथा-- कहत' मुखागर बाल के, रहत बन्यों नहिं गेहु । जरत बाचि आई ललँन, बाचि पाति-हू' लेहु ॥. अस्य तिलक इहाँ 'जरत' सब्द ते ब्याधि प्रकासित करी, संदेसे ते मुकर गई ये बस्तु ते प्राच्छेप अलंकार व्यंग है। वि०-"विरह को अति तत कहना 'कवि प्रौढोक्ति' है। अतः दूती वा सखी, जरत शब्द कहकर विरहणी नायिका के अति संताप की सूचना देती है, अतएव नायिका का विरह-संताप वस्तु जरत शब्द से-आक्षेपालंकार से कहा । आक्षेपालंकार- आक्षेपम्तु प्रयुक्तस्य प्रतेपेधौ विचारणात् ।' अर्थात् जहाँ प्रधान की अवहेलना कर (वही) दूसरे प्रकार से कहा जाय, वहां यह अलंकार होता है । इसी प्रकार कवि प्रौढोक्ति वस्तु से अलंकार व्यंग्य दिख- लाने वाला 'पद्माकरजी' का निन्न छंद भी अति सुंदर है, यथा- दूरि-ही ते देखति विथा में वा बियोगिनि की, आई भले भाजि ह्याँ इलाज मढि आवेगी । कहै 'पदमाकर' सुनों हो घनस्याम जाहि, चेतति कहूँ जो इक प्राह कढ़ि भावैगी॥ पा०-१. (प्र.) (प्र०-३) बचन कहत मुख बालके ( सं० प्र०)(वे.)... मुखागार बात के । २. (प्र. ) बन्यों रहत नहिं । ३. (भा० जी०) (३०) ही." ।
- न्य० म० ( ला० भ० दी०) पृ० ५२ । र० सा० (दास) पृ० १३ ।