१२६ काव्य-निर्णय "दिल को खुद छेड़े जो वह तिरछी नजर तो क्या करूँ। चेन से रहने न दे, दर्दे-जिगर तो क्या करूँ ॥" -कोई शायर, पुनः दोहा' जथा-- द्वार-द्वार देखति खरी, गैल छैल नँद-नंद । सकुचि बंचि हग-पंच की, कसत कंचुकी-बंद ॥ अस्य तिलक इहाँ नायिका के हरख-प्रफुल्लता के कारन कंचुकी के बंद ढीले परे तिन्हें संकि करि छिपापति है, ये ब्याजोक्ति अलकार ब्यंग है। विo-"जहाँ अपनी गुप्त बात खुल जाने के भय से कपट-द्वारा प्रस्तुत रूप पर कोई अन्य कल्पना गढ़ ली जाय, वहाँ 'व्याजोक्ति' होती है।" प्रौढोक्ति करि अलंकार ते बस्तु ब्यंग जथा- कहा ललाई लै रही, आँखियाँ बे मरजाद । लाल, भाल-नख-चंद कछु', दीन्हों इन्हें प्रसाद ॥. अस्य तिलक इहाँ रूपकालकारते तुम पर-स्त्री के रहे हो, ये अलंकार ते बस्तु ब्यंग है। वि.-"नख-क्षत को चंद्र मानना' कवि प्रौढ़ोक्ति है, साथ-ही नख-चंद्र में रूपकालंकार भी है। इस रूपक से दासजी ने नायक की सदोषता नायक- नायिका के प्रश्नोत्तर रूप में वस्तु व्यंग्य का सुंदर वर्णन किया है। इस प्रकार का प्रश्नोत्तर कविवर विहारीलाल का तो और भी सुदर है-वर्णनातीत है, यथा-- "बाल, कहा लाली भई, लोयन-कोयँन माँहि । लाल, तिहारे हर्गेन की, परी हगन में छाँह ॥" -सतसई. इस पर टीका-टिप्पणी व्यर्थ है, प्रसिद्ध साहित्य-समालोचक स्वर्गीय पं० पद्मसिंहजी शर्मा के शब्दों में-"बाल-लाल की जोड़ी रूप संबोधनों पर लालों (ऐसे दोहों) की असंख्य जोड़ियाँ निछावर हैं। पा०-१.[प्र०] [सं० प्र०] [३०] [प्र. मु.] दुति । २ [प्र० मु.] ये परसाद।
- यं० मं० [ला० भ० दी० ] पृ० ४२ ।