१२८ काव्य-निर्णय या मधु-रितु में कोंन कें, बढ़त न मोद अनंत । कोकिल गावति है कुहुकि, मधुप गुंजरत संत ॥" २०प्र० (रस०) ३०१, पीते हुए झिझकते हो, स्ले-बहार में। तुम भी 'निसार' आदमी हो किस खयाल के ॥ कवि-प्रौढोक्ति बस्तु ते अलंकार ब्यंग जथा- निज गुमान दै माँन कों. धीरज करि' हिय-थाप । सुतौ स्याँम-छबि देखत-हिं', पैहले भाज्यौ आप ।।. अस्य तिलक इहाँ नायिका को बिना मनाऐ -ही माँन छूट्यौ यै 'बिभावना' अलंकार बस्तु ते अलंकार ब्यंग भयो। वि०-"नायिका-द्वारा मान करने पर नायक नायिका को मनाने जाता है, यह कवि-प्रौढोक्ति है। अतएव नायक के नायिका को मनाने जाने पर नायक के बिना मनाए-ही-केवल नायक की छबि देखकर ही, नायिका का मान छुट गया यह विभावना तथा अतिशयोक्ति अलंकार की ध्वनि है-व्यंग्य है । विभावना- "भयो काज विन-हेतु-हीं, बरनत हैं जिहिं और । तहिं 'बिभावना' कहत हैं, 'भूषन' कबि सिरमौर । कुछ इसी भाव से मिलती जुलती ब्रजभाषा के अर्वाचीन श्रेष्ठ कवि स्व. रत्नाकरजी की एक सुंदर सूक्ति देखिये, यथा-- "न चल्ली कछु लालची लोचन सों, हठ-मोचन के चहिनोंई परयौ। 'रतनाकर' बक-बिलोकन-बान, सहाए बिना सहिनों-ई परयौ ।। उत ते वे गात दुबाइ घले, तब तौ प्रन को डहिनों-ई परयौ। भरि पाहि, कराहि (नों जू-सुनों, नंदलाल सों यों कहिनों ई परयो ।" -रत्नाकर-संग्रह, पा०-१. [ भा० जी० ] 'कीय-हि जथापि । [३०] निज गुन-मान समान हो, धीरज... 1 [प्र०-३ ] धीरज कर"। २. [ भा० जी० ] देखि । [३०] [प्र० मु.]... देखितहिं । ३. [ भा० जी० ) [३०] [ प्र० मु० ] भाग्यो...।
- व्यं० म० [ला० भ० दी०] पृ० ४१ ।