काव्य-निर्णय १२५ सुत संभवी बस्तु ते अलंकार ब्यंग जथा- सखि, तेरौ प्यरौ भलौ, दिन-न्यारौ जात । मोते नहिं बलबीर कौ, पल-बिलगान' सुहात ॥ अस्य तिलक इहाँ अपनी बड़ी बातें स्गधीनपतिका नायिका' जनावति है, सो वस्तु ते न्यतिरेकालंकार (जहाँ उपमेय में उपमान से कुछ अधिकता बतलायी जाय) म्यंग वि०-"अर्थात् यहाँ नायिका-द्वारा अपने को स्वाधीन-पतिका ( जिसका पति सदा प्राधीन रहे), का यह सूचित करना-दूसरी के पति से अपने पति की अधिक अाधीनता बतलाना व्यतिरेकालंकार है, व्यंग्य है-ध्वनि है, जिससे नायिका (कथन करने वाली) यह जतलाती है कि में तुझ (जिसके प्रति यह उक्ति कही गयी है) से अधिक भाग्यवान् हूँ अथवा मेरा पति तेरे पति से कहीं अधिक प्रेमी है । स्वाधीनपतिका का किसी कवि का यह छंद बड़ा सुदर है, यथा- "लै परजंक धरै भरि भक, निसंक है स्वाबत प्रेम-उपायन । कि पर ते पर उर लागि, हिये सों हियौ अनुराग सुभायन ॥ लार्जन हों लरजों गैहरी, बरजों गैहरी कैहरी कहि दायन । जागति जाँनि कहाँनी कहै अरु सोबति जाँनि पलोटत पाँयन ॥" सुतःसंभवी अलंकार ते वस्तु ब्यंग 'कवित्त' जथा- गिलि गए सेदन, जहाँ-ई-तहाँ छिजि गए, मिलि गए चंदन भिरोंहें इहि भाइ सों । गाढ़े है रहे-ई' सहि सनमुख तुकॉन लीक, लोहित लिलार लागो छीटें अरि घाइ सों। श्री मुख-प्रकास तँन 'दास' रीति साधुन की, अजहूँ लों लोचन तँमीले रिसताइ सों। सोहैं सब५ अंग सुख-पलक सुहाए हरि, आए जोति सँमर सँमर महाराइ सों॥ पा०-१ (३०) (भा० जी०) (प्र० मु०) पल बिलगात...। २. (भा० जी०) (३०)... भिरे हैं...। (प्र०) (प्रमु०) भरे हैं,...भाव...। ३. (प्र०) हैं, सहे सनमुख काँम लीक, । ४. (मा० जी०) (३०) (प्र० मु०) बीट...। ५. (भा० जो०) सरबंग । (३०) (प्र० मु०) सरवांग ।
- व्यं० म० (ला० भ० दी०) पृ० ३४-३५ ।