पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१५९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२४ काव्य-निर्णय बरन' अन जु बीर कों, रबि सौ तप्त प्रताप । सकल तेज-मइ ते अधिक, कहें बिरह-संताप ॥ साँची बातँन जुक्त-बल, मूंठी कहत बनाइ । मूंठी-बातन कों प्रघट, साँच देत ठहराइ । कहे-कहाबै जॉन सों, बातें बिविध प्रकार । उपमाँ औ' उपमेइ कों, देंइ सकल अधिकार ।। यो-ई औरों जाँनिएं, कवि-प्रौढोक्ति विचार । सिगरी रीति गिनावत"-हिं, बालै ग्रंथ अपार ॥ सोरठा जथा- बस्तु ब्यंग कहुँ चारु, सुतःस भबी बस्तु ते । बस्तु हि तेऽलंकारु, अलंकार ते बस्तु कहि ॥* कहूँ अलंकृत बात, अलंकार ब्यंजित करें । यो-ई पनि गँन जात- चार भेद प्रौढोक्ति में। सुतःसंभवी वस्तु ते बस्तु ब्यंग 'दोहा' जथा- सुनि-अँनि पीतम भालसी, धूर्त, सूम, बॅनवंत । नबल बाल हिय में हरख, बाढत जात अनंत ॥ ___ अस्य तिलक इहाँ--नायक बालसी है तो कभू देस-बिदेस जाइगौ नहीं, धैंनवंत है भी झूम हूँ है तौ दाग्दि को डरु नाही, धूर्त है तौ प्रति काँमी हूँ होइगौ ए सब नायिका की चित-चाँही बाते हैं, यै बस्तु ते बस्तु व्यंग है। पा०-१. (प्र०) (प्र० मु०) बरनत अरुन अबीर सौ, । (सं० प्र०) बरनत करन अबीर सौ। (३०) करुना अरुन अबीर सौ। २. (३०) सकल तेज मंते अधिक, । ३. (३०) जुक्ति.... ४. (३०) में...। ५. (३०) गिनावते.... ६. (३०) कहँ। ७. (३०) सुति...!