१२३ काव्य-निर्णय भयानक का पीला, वीर का अरुण-इत्यादि, जैसा कि दासजी ने नीचे के दोहों में कहा है। अस्तु जब इन्ही के सहारे कोई व्यंग्य निकले तब उसे 'कवि- प्रौढ़ोक्ति-द्वारा जित ध्वनि' कहते हैं और यह भी जैसा कि दासजी ने अन्य साहित्य सृजेताओं के अनुसार जो ऊपर लिखे जा चुके हैं-वस्तु से वस्तु इत्यादि......"भेद आगे के दोहों में सोदाहरण प्रस्तुत किये हैं। पोयूवी श्री जयदेव ने इन वस्तु से वस्तु-अलंकारादि चारों व्यंग्यों के "कवि-निर्मित, प्रौढ़-निर्मित' और स्वसिद्ध रूप तीन-तीन भेद और माने हैं, यथा- "चत्वारो वस्त्वलंकारमलंकारस्तु वस्तु यत् । भलंकारमलंकारो वस्तु वस्तु व्यनक्ति तत् ॥ वक्त : कविनिबद्धस्य कवेर्वा प्रौढिनिर्मितः । स्वसिद्धो वा व्यंजकोऽर्थश्चधारस्त्रिगुणास्ततः॥ -चंद्रालोक ७, ७-८ अतः बाचक-लच्छक बस्तु कों, 'जग-कैहनाबति जाँन । सुतःसंभबी कहत हैं, कबि पंडित सुख-दान ।। जग-कैहनाबति ते कळू, कबि-कहनाबति भिन्न । ताहि कहें प्रौढोक्ति सब, जिनकी बुद्धि अखिन्न ।। उज्जलताई कीर्ति की, सेत कहत संसार । तैम छायौ जग में" कहें, खुले तरुनि के बार ।। कहत" हास श्री सांत रस सेत बस्तु से सेत । स्याँम सिंगार औ पोत भय, अन रौद्र गँन लेत ।। पा०-१. (सं०प्र०) लच्न...। २. (सं०प्र०) ताहि प्रौढोक्ती कहैं, सदा...। (३०) (प्र०- मु०) तिहि प्रौद्योक्ति करें सदा । ३ (सं० प्र०) (३०)(प्र० मु०) कहै...। ४. (३०) मो...। ५. (३०) सं०)(३०) (प्र० मु०) कहें हास्यरस, सांतरस, । ६. (भा० जी०) ते...। ७. (३०) (प्र० मु०) यार-सिँगारै प्रीति, भय । ५. (३०) अन रद गॅनि...।
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१५८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।