पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१५७

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१२२ काव्य-निर्णय विविध संकलन कर्ताओं ने इसे वहीं संकलित किया है । दासजी ने इसे स्वतंत्र भेद माना है । आप मुग्ध दि विप्रलब्धा के फेर में नहीं। मुग्धा विप्रलब्धा का उदाहरण 'कवि सोमनाथ' जी ने बड़ा संमोहक प्रस्तुत किया है, यथा- "खेलिहैं लाल के सग चलौ, कहिके उर में मति और-हीं ठानी। यो बहकाइ के नेह-बदाइ, मयंक-मुखी रति-मंदिर आँनी ॥" हाँ न लखे, ससिनाथ' सुजॉन, कछूक नहीं ठिठकी ठकुरानी। है न सयाँन रतीभर-ऊ, अलबेली तऊ हिय में अकुलांनी ॥" -रसपीयूष, "मिल्यौ न कंत सहेटवा, लखेउ डराइ । धनियाँ, कमल-बदनियाँ, गइ कुम्हिलाइ ॥" -रहीम, अस्तु, पं० महावीर प्रसाद मालवीय ने स्व-संपादित प्रति में यहाँ टिप्पणी करते हुए 'शब्द-शक्ति से अन्योन्य उपमालंकार-द्वारा अन्योन्य, कान्य और क्रमालंकार व्यंग्य 'माना है।" अथ अर्थ-सक्ति लच्छिन 'दोहा' जथा- अनेकार्थ मइ सब्द-तजि, और सब्द जे' 'दास'। 'अर्थ-सक्ति' सब कोइ कहें, धुनिमइ' बुद्धि-बिलास ।। वि०-"अर्थ शक्ति से उत्पन्न अनुरणन ध्वनि उसे कहते हैं, जहाँ शब्द के परिवर्तन होने पर भी व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो और इसके कोई दो भेद-. 'स्वतःसंभवी' और 'कवि प्रौढोक्ति' तथा कोई तीन भेद-'स्वतःसंभवी, 'कवि- प्रौढोक्ति मात्र सिद्ध' और 'कवि निबद्ध पात्र की प्रौढोक्ति मात्र सिद्ध' मानते है। स्वतःसंभवी के भी-वातु से वस्तु, वस्तु से अलंकार, अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार-व्यंग्य रूप चार भेद साहित्य सृजेताओं ने माने हैं। __कवियों ने कुछ वस्तुओं के 'वर्ण' और 'गुण' भी निश्चित कर रखे हैं, जैसे-“कीर्ति व यश का वर्ण उज्जल, पाप का काला, खुले बाल अंधकारमय, शांत और हास्य रस का वर्ण सफेद, श्रृंगार रस का काला, रौद्र का लाल, पा०-१. [ स० प्र० ] जो .. । २. [ भा० जी०] [३०] [प्र० मु० ] कों... । ३. [भा० जी०] [प्र०-मु०] ध्वनि में......।