काव्य-निर्णय ११५ वि०–'दासजी का यह कवित्त रसकुसुमाकर ( अयोध्या नरेश ) और काव्य-प्रभाकर ( भानु ) के अनुसार 'लक्षिता नायिका' के रूप में वर्णन किया गया है. जो प्रायः व्यंग्य वा ध्वनि-प्रधान ही होता है । लक्षिता नायिका, यथा- "लच्छिता सु जाको सुरत-हेत प्रघट ह्र जात । सखी ब्यंग बोलें कहै निज धीरज धरि बात ॥” । --, नि० ( दाय) पृ० ३६ अर्थात् जिस नायिका का पर-पुरुष-प्रेम प्रकट हो जाय, उसे लक्षिता कहते हैं । दासजी ने इसके-सुरति-लक्षिता, हेतु-लक्षिता और 'धीरत्व' नामक तोन भेद कर सुंदर उदाहरण प्रस्तुन किये है। रसलीन ने भी इन तीनों भेदों को अपनाया है, जो नाम और क्रम भेद के साथ है। आपने--‘हेतु, 'सुरति' और 'प्रकाश-लक्षिता' नाम दिये हैं । प्रथम धुनि भेद 'दोहा' जथा- धुनि कौ' भेद दुभाँति है, मैंने भारती-धाम । 'अबिबच्छित' औ बिबच्छित,-बाच्य दुहुँन के " नाँम ।। अथ अविच्छित वाच्य लच्छिन 'दोहा' जथा--- बकता की इच्छा नहीं बचन-हिँ कौ जु सुभाव । व्यंग कढ़े तिहिं बाच्य सों सो 'अविच्छित ठेहाराव ॥ वि०-"जहां प्रयुक्त शब्दों का वाच्यार्थ वक्ता की इच्छा न होने पर भी लक्षणा के द्वारा शब्द-स्वभाव के कारण कुछ और ही हो, वहाँ 'अविवक्षित- वाच्य ध्वनि' कही जाती है। पुनः भेद कथन 'दोहा' जथा-- 'प्ररथांतरसंक्रमित' इक है अबिबच्छित बाच्य । पुनि' 'अरथांतरतिरसकृत' दूजौ भेद पराच्य ॥ पा०-१. (प्र०-३) के...। २. (सं० प्र०) द्वि भाँति हैं,। (प्र०-३)...द्विभाँति सो। ३. (स० प्र०) (३०) अविवांछितौ-बिबांछितौ,। ४. (प्र०) (३०) (भा० जी०) को...। ५. (सं0- प्र०) (३०) भबिवांछित बाच्य . । ६. (भा० जी०) (३०) को...। ७. (सं० प्र०) अबिबांछित ...। म. (सं० प्र०) (३०) है अविवांछित...। ६. (प्र०) पुनि अरथांत तिरसकृति । (प्र०-३) (सं० प्र० पुनि अत्यंत तिरसकृति । (40) पुनि अत्यंत तिरस्कृती ।
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