काव्य-निर्णय ध्वनि के अनेक भेद कहे जाते हैं, अस्तु प्रथम-'अभिधा' और 'लक्षणा' मूला नाम से दो भेद जिन्हें 'विवक्षित अन्यपरवाच्य' एवं 'अविवक्षित- वाच्य' भी कहते हैं, के सेंतालीस और लक्षणा-मूला (अविवक्षितवाच्य ) के चार भेद कहे हैं। इसी प्रकार अभिधामूला-जनक विवक्षित अन्य- परवाच्य के- 'संलक्ष्य-क्रम व्यंग्य के इकतालीस (४१) और असंलदाक्रमव्यंग के छह (६) भेद होकर पुनः संलद क्रम व्यंग्य के 'शब्द शक्ति','अर्थ-शक्ति' और शब्दार्थ-शक्ति मूलक तीन भेद कहे हैं। साहित्यकारों ने अर्थ शक्ति-मूलक ध्वनि के भी छत्तीस ३६ भेद - 'कवि-निबद्ध-पात्र प्रौढोक्ति', 'कवि-प्रौढोक्ति और 'स्वतःसंभवी' के क्रमशः बारह-बारह भेद-वस्तु से वस्तु व्यंग्य, 'वस्तु से अलंकार व्यंग्य' 'अलंकार से अलंकार व्यंग्य' जो कि 'प्रबंध-गत', 'वाक्य-गत' तथा 'पद-गत' मानते हुए शब्दार्थशक्ति-मूलक के 'वस्तु व्यंग्य' और 'अलंकार- व्यंग्य' फिर इन दोनों के पद-गत, वाक्य-गत भेद कहे हैं । असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य के भी- पद, वाक्य, प्रबंध, पदांध, वर्ण और रचना-गत 'छांसठ' (६६) भेद कहकर रीति प्रथकारों ने 'तक्षणामूला-'अविवक्षित वाच्य ध्वनि' के 'अर्थातर- संक्रमित' और 'अत्यंत तिरस्कृत' रूप दो भेद कह फिर इन दोनों के पद और वाक्य-गत दो-दो भेद माने हैं।" उदाहरन कवित्त जया-- भोर तजि कचॅन कहत मखतूल औ' कपोलन, कों कंबु ते२ मधु कै भाँति-भाँति है। विद् म बिहाइ सुधा अधरन भाँखें कौल', - बरजे कुचेंन करि५ श्रीफल की ख्याति है। कंचन निदरि गर्न गाहृन कों चंप-पात, काँन्ह-मति फिरि गई काल्हि-ही को राति है। 'दास' यों सहेला सों सहेली बतराति, सुनि-सुनि लाजनि उत नबेली गड़ी जाति है ।। पा०-१. (र० कु०) वै ..। (का० प्र०) (का० का०) . वै कपालन को बबु के मधू की भांति...! २. (र० कु०) के...। ३. (र० बु०) की...। ४. (प्र०) और बरनें कॅमल-कुच श्रीफल की...। (र० कु०) (का० प्र०) कज दरनें...। ५. (र० कु०) करें...। ६ (प्र०) गँने गात पात-चंपक को... (०) गर्ने गात को चपफ-पात...। (र० कु०) (का० प्र०) गर्ने चंपक के पात गात । ७ (प्र०) (३०) (र० कु०) (का० प्र०)-न उत लाजनि नबेली...।
- , र० कु० [अयो०] पृ० ११२, २५७ । का० प्र० [भानु] पृ० १५४, २ । का० का०
[रा० च० सिं०] पृ०६५ ।