११० काव्य-निर्णय अस्य उदाहरन 'दोहा' जथा- चलत तिहारे प्रॉन-पति, चलिहें मेरे प्राँन । जग-जीबन तुम्ह-बिन हमें, घिग जीवन जग जॉन ॥ अस्य तिलक- इहाँ प्रवस्यत्प्रेयसी (प्रियतम के होने वाले वियोग की आशका से दुखित होने वाली) नायिका को गलानि (ग्लानि) भाव भग है। अथ भाव सबलबत अलंकार बरनन 'दोहा' जथा- भाव-सबल कहि 'दास' जौ काहू को अंग होइ । 'भाव-सबलबत' तिहिं कहें, कबि, पंडित सब कोइ ॥ वि०-"जहाँ क्रम से एक के पीछे एक रूप से कई भावों का विकास होता जाय वहाँ 'भावशबलवत्' अलंकार माना जायगा ।" अस्य उदाहरन 'कवित्त' जथा- मेरे पग झाँबत हो भाबतौ सलोंनों एहो,' हँसि कहि बालॅम बिताई कित रतियाँ । इतनों सुनत रूसि ' जात भयौ पार्छ पछिताइ- हो मिलन चली गोंऐं भेख भतियाँ ।। 'दास' बिन-भेंट हों दुखित' फिरी आई सेज, सजनी बनाई बुझि आइबे की घंतियाँ । बार-लागें लागी मग जोहों हों किबार-लागी, हाइ अब तिन्ह की सँ देस ह न पतियाँ ।।* अस्य तिलक इहाँ पाठों- "स्वाधीन-तिका, धीरा, कजहंतरिता, अभिसारिका, अनुस- याना, लच्छिता, आगरपतिक' औ प्रोषितपतिका "नायिकॉन को सबल 'प्रोषित. पतिका' को अंग है। पा०-१. (सं० प्र०) (३०) (र० कु०) झांबतो हो...। २. (सं० प्र०) (३०) (२०- कु०) सलोनों हों हसत हसि... ३. (र० कु०) हँसि...। ४. (प्र०) (१०) पीथे.... ५. (र० कु०) बतियाँ.... ६. (र० कु०)...दुखित भई आइ सेज, सजनी बनाइ बूझी । ७ (र०- कु०) लागी लगी मग...| - (र० कु.] उनकी....
- , र० कु० (अयोध्या) पृ० १३५, ३५६ |