१०८ काव्य-निर्णय पुनः कबित्त जथा--- दारिद-बिदारिबे की प्रभु कों: तलास तौ- हमारे खाँ जनगन दारिद की खॉन है। अघ की सिकारी जो है नजर तिहारी तौ- हों' तन-मॅन-पूरन अन राखे ठाँन हैं। 'दास' निज संपत्ति जु साहब के काम- श्राएँ होत हरखित पूरौ भाग अनुमान हैं। आपनी बिपति को हाजिर हों करत लखि राबरे की बिपति-बिदारन की बाँन हैं। अस्य तिलक इहाँ दान--बीर को रसाभास दानता भाव को भंग है। अथ समाहित-अलंकार वरनन 'दोहा' जथा- काह के अंग होत है, जहँ भावन की साँति । 'समाहितालंकार' तह, कहें सुकबि बहु भाँति ॥ वि०-'जहाँ भावों की शांति किसी दूसरे रस की अंग हो जाय, अथवा जहाँ कोई रस किसी भाव-शांति का अंग बन कर पाए, वहाँ समाहित-अलंकार कहा जायगा। कोई-कोई जबकि किसी एक क्रिया के द्वारा किमो उभड़ते हुए भाव का प्रलय (विलीन) होना दिखलाय जाय, वहाँ 'समाहित' को मानते हैं। समा- हित को 'समाधि' भी कहते हैं।" उदाहरन 'दोहा' जथा- राँम-धनुष-टंकार सुनि, फेल्यौ चहुँ दिसि सोर' । गरभ नवें रिपु - राँ नियाँ, गरब सबें रिपु - जोर ॥ अस्य तिलक इहाँ भयानक रस को गरव-भाव सांति को भंग है, वा में समाहित है। पा०-१. (भा० जी०) के ..। (३०) के...! २. (भा० जी०) (३०) (प्र० मु०) इहाँ... (सं० प्र०) हमारे-ही यां...। ३. (३०) (प्र० मु०) के...। ४. (भा० जी०) तो, होत न चेन पूरन अर्धेन ..। ५. (प्र०) (३०) (प्र० मु०) राख्यो.... (सं० प्र०) तो हों तन-बन पूरन अर्धेन राख्यो...। ६. [भा० जी०] [३०] [प्र० मु०] सु.... ७. [भा० जी०] को...J म. [भा० जी०] [बैं०] [प्र० मु०] टकोर...। ६. [भा० जी०] [३०] [H० मु०] सब जग सोर । १०. [३०]...खोर ।
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१४३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।