काव्य-निर्णय १०७ अस्य तिलक इहाँ सौति के मुख देखिये की 'उत्कंठा', मंत्र लेबे की चिंता' औ बरि की भक्ति ए तीन्यों 'भावाभास के भंग हैं, जो बिभत्स-रस के अंग हैं। वि०-'रस-कुसुमाकर' के संग्रहकर्ता ददुवा साहिव अयोध्या ने, इस छंद को 'विप्रलंभ-शृगाररसांतर्गत'-दशदशानुरूप 'अभिलाप' कथन के उदाहरण में संकलित किया है। अभिलाप -- 'मिलन चाँह उपजै हिऐ, सो 'अभिलाप' बखाँन ।" पुनः उदाहरन 'सवैया' जथा- चंदन-पंक लगाइ के अंग,' जगावत आगि सखी बरजोरें। ता पर 'दास' सुबासन ढारिके देति है बारि बियारि झकोरें। पापी पपीहा न जीहा थकै तऊ पो-पी" पुकारि-बकै उठि भोरें। देति कहा है दहे पै दाह, जु गई करि जाहु दई के निहोरें ।।* अस्य तिलक इहाँ पपीहा सों दीनता भावाभास है, सो विषाद भाव प्रलाप-दसा कौ अंग है ताते इहाँ हू 'ऊर्जस्त्रि' अलंकार है। वि०-“दासजी ने यह छंद शृगार-निर्णय में प्रलाप के उदाहरण में और श्रृंगार-संग्रह के रचयिता सरदार कवि ने 'प्रोषित-पतिका-नायिका के उदाहरण में संकलित किया है । प्रलाप-दशा, यथा- "सखिजन सों, के जन सों, तन-मन-भरयौ संताप । मोह बेन बकिबो करै, ताकों कहत प्रलाप ॥" - नि० (दास) पृ० १०५ रसलीन जी ने इस 'प्रलाप' का उदाहरण छोटा होते हुए भी बड़ा सुंदर दिया है, यथा- "तो बिछुरत ही विरह मै, कियौ लाल को हाल । पपिहा-बोलें ये कहत, मोहिं बुलावत बाल ॥" -२० प्र० पृ० १२३ पा०-१. (० सं०) अंक...। २. (भा० जी०) (३०) (प्र० मु०) जगावती । ३. (Vo- सं०) घोरि के...। ४. (भा० जी०) (३०) (प्र० मु०) तुअ...। ५. (भा० जी०) पापी पुकारि...। ६. (प्र०)( नि०) करै...। ७. (सं० प्र०)(३०)पी-पी पुकारि के कै उठि भोरें।
- , V० नि० (दास) पृ० १०५, ३१८ । सु. ति० (भा०) पृ० १५०, ६१५ । शृ० सं०
(सरदार) पृ० ६३, ४० ।