पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१४०

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काव्य-निर्णय बजि-बलि जाँउ वृषभानु की कुमारी तेरी, नेकु कयौ मान तेरौ कहा बिगर है-री । चंचल चपल ललचोंहे ग मूदि राखि, जौ लों गिरिधारी गिरि नख पै धरें है-री॥ पुनः उदाहरन 'सवैया' जथा- पीत-पटी कटि में, लकुटी कर,' गुंज को माल हिऐं दरसा । सौरभ-मजरी कॉनन में, सिखि-पिच्छंन सीस किरीट बना ।। 'दास' कहा कहों काँमरो-बोदें, अनेक विधाँनन भोंह-नचाबै । कारे डरारे निहारि' इन्हें सखि, रोम :उठे, अँखियाँ भरि भाई ॥ अस्य तिलक इहाँ भबहित्थ भाव ( चतुरता पूर्वक किसी दशा व बात का छिपाना ) को निंदा-भाव भंग है। वि०-"जैसा ऊपर कहा गया है, "चतुरता-पूर्वक किसी दशा व वात के छिपाने' को अवहित्थ संचारी भाव कहते हैं, यथा- _ "जो जहँ करि कछु चातुरी, दसा दुराबै आइ । ताही को 'भवाहित्थ पै भाव कहत कविरा ॥. और संस्कृत-साहित्य-सृजेताओं का कहना है कि 'लज्जादि से उत्पन्न ईर्षादि भावों का छिगया जाना 'अवहित्य' है, अथवा-'न वहिस्थं चित्त येन्' अर्थात् जिससे चित्त वहिस्थ न हो वह अवहित्थ । साहित्य-दर्पण (संस्कृत) के कर्ता कहते हैं- "भयगौरवलज्जादे ईर्षायाकार गुप्तिरिवाहित्था । व्यापारांतर सक्त्यन्यथावभाषण विलोकनादिकरी ॥" भय, गौरव-लज्जादि के कारण हर्षादि के श्राकार को छिपाना 'अवहित्थ' है और उदाहरण, जैसे- "एवं वादिनि देवर्षों पायें पितुरधोमुखी। लीला कमलपत्राणि गणपामास पार्वती ॥" अर्थात् सप्तर्षियों-द्वारा विवाह को बात चलायी जाने पर पिता (हिमांचल) के पास बैठी हुई पार्वती नीची गर्दन कर लीला-कमल को पंखुड़िया गिनने लगीं। पा०-१. ( सं० प्र०) कलगुज के पुँज गरें दरसावै । २. ( भा० जी० ) निहारे... ।