१०२ काव्य-निर्णय 'दास जू बादि जैंनेस, मॅनेस, धैंनेस, फॅनेस, गँनेस' कहाइबौ । या जग में सुखदायक एक, मयंक-मुखीन कौ अंक लगाइबौ ॥ अस्य तिलक इहाँ "इक मयंक-मुखीन को अंक लगाइबौ" कहे ते सांत-रस सिंगार-रस के अंग में है, ता ते रसबंत अलंकार कहिऐ। वि०-"रसकुसुमाकर के रचयिता अयोध्या-नरेश ने तथा 'काव्य-प्रभाकर' के कर्ता भानु ने यह छंद अपने-अपने ग्रंथों में 'दक्षिण' नायक ( जिसका अनेक स्त्रियों पर समान प्रेम हो ) के उदाहरण में संकलित किया है।" पुनः दोहा' जथा- चंद-मुर्खिन के कुचन पै, जिन को सदाँ बिहार । अहह करें ताही करन, चखन' फैरबरदार ॥ अस्य तिलक इहाँ करुना रम को सिंगार-रस अंग भयौ है, ताते 'रसबंन अलंकार है। वि०-प्रतापगढ़ की हस्तलिग्वित प्रति में इस दोहे का शीर्षक- "करुन रसवत् अलंकार बरनन" लिग्वा है और प्रतापगढ़ नं० ३ की प्रति में "शृगारवत् .." लिखा है। अथ अदभुत-रसवंत अलंकार चरनन 'सवैया' जथा- जाहि दबानल-पॉन किए ते बढ़ी हिय में सरदी सरदे सों। 'दास' अघासुर जोर-हत्यौ, जु लह्यौ बच्छासुर से बरदे सों॥ बूड़ति राखि लियौ गिरि लै, ब्रज-देस पुरंदर बेदरदे सों। ईस हमें पर दे परदेसों, मिलें उड़िता हरि सों' परदे सों अस्य तिलक इहाँ चिता-भाव को अद्भुद रस अंग है, ताते रसबंत अलंकार है। पा०-१. (र० कु०) रमेस.. | २. (प्र०) (भा० जी०) (३०) (प्र० मु०) कहैयौ । ३. (भा० जी०) (प्र०) (प्र० मु०) (३०) लगैबो। ४. (सं० प्र०) चद-मुखी.. । ५.(प्र०) (प्र० मु०) चिरियन फेरबदार । (३०) चरबनदार फेरबदार । ६. (भा० जी०) बढ्यौ...। ७. (३०) (प्र० मु०) (सं० प्र०) (सु. ति०) हरयौ...! २. (सं० प्र०) (प्र० मु०) (सु०- ति०) लग्यौ । ६. (सं० प्र०) सो... १०. [प्र०--३] मिलो.... ११. (भा० जी०) कों।
- , र० कु० (अयोध्या) पृ० १५६, ४२३ । का० प्र० (भानु), पृ० २४४, ४ । का० का०
(च० सिह) पृ० १२५ 11, सु० ति० (भा० ह०) पृ० १७१, ५२३ । म० भ० (अजान) पृ०- ६१, २२६ । .