१०० काव्य-निर्णय वि०-'दासजी ने यहाँ 'रसाभास' का लक्षण न देकर उदाहरण ही प्रस्तुत किया है। अस्तु, रसाभास वहां कहा जायगा जहाँ रस अनुचित रूप में हो, अर्थात् जब किसी काव्य में रस व्यंजना के होने पर भी रस न मानकर केवल उसका आभास मात्र माना जाय, वहाँ रसाभास कहा जायगा। अस्तु, साहित्य- सन्तानों ने नवरसों में 'रसाभास' का इस प्रकार उल्लेख किया है। "उपनायक वा अनेक नायकों में नायिका को, अथवा अनेक नायिकाओं में एक नायक की रति-प्रीति का होना, नदी-श्रादि निरिंद्रियों में संभोग का अारोप, पशु-पक्षियों के प्रेम का वर्णन, गुरु-पत्नी में अनुराग, नायक-नायिका में उभय-निष्ठ प्रम, जैसे-नायिका का प्रेम नायक के प्रति हो, पर नायक का प्रेम नायिका के प्रति न हो, अथवा इससे विपरीत नायक का प्रेम तो नायिका के प्रति हो, पर नायिका का प्रेम उस ( नायक ) के प्रति न हो-यादि....., तथा नीच व्यक्ति के प्रति प्रेम का होना-इत्यादि 'शृगार-'रसाभास' कहे जाते हैं। किसी-किसी प्राचार्य ने अन्य प्रतिष्ठित नारी, जैसे--भावज, ( भौजाई ) तथा मित्र-गृहिणो, पर-पुरुप गृहीता और भिक्षुणो के प्रति अनुराग को भी 'रसाभास' का विषय माना है। इसी प्रकार-गुरुजनादि पूज्य व्यक्तियों को हास्य का विषय-श्रालंबन बनाना, 'हास्य-रसाभास', विरक्त में शोक का होना--'करुण-रसाभाम', चोर, डाकु, दुर्जन-श्रादि नीच व्यक्तियों में उत्साह बताना--'वीर-रसाभास', ज्येष्ठ भ्राता, गुरु, पिता, माता, त्यागी, वृद्ध-आदि पूज्य व्यक्तियों के प्रति क्रोध जतलाना--'रौद्र-रसाभास' उत्तम व्यक्तियों में भय का होना-'भयानक-रसाभास,' यज्ञ-पशु में ग्लानि- 'बीभत्स-रसभास', तंत्र, मंत्र और यंत्र आदि के प्रभाव से उत्पन्न विस्मय में-'अद्भुत-रसाभाम' और नीच-व्यक्तियों में शम या निर्वेद को स्थिति-'शांत-रसाभास' कहा गया है (साहित्य-दर्पण तृतीय परिच्केद -२६२४२६५)। वहाँ इनके क्रमशः उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। अस्तु, 'दोहा' जथा- भिन्न-भिन्न जद्यपि सकल, रस-भावादिक 'दास' । रस-हिं व्यंग' सब कोउ कयौ, धुनि को जहाँ प्रकास ।। इति श्री सकल कलाधर-कलापरवंसावतंसश्रीमन्महाराज कुमार श्री बाबू हिंदूपति विरचिते 'काम्प-निरनए' रसांग बरननो नाम चतुर्योक्खासः। पा०-१.(सं० प्र०) रस एंगी... 1() रसौ व्यगि...।
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