काव्य-निर्णय अथ भाषाभासादि बरनन जथा-- सिंगारादिक भेद बहु और बिभचारी भाव । प्रघट यौ रस-सारांस में, माँ को करें बढ़ाव ।। भाव उदै सांत'-हु सबल. सांत-हु' भावाभास । रसाभास ए मुख्य कहुँ', होत रस-हिं लों 'दास' । वि०-"देवादि विषयक रति-सामिग्री के अभाव में उबुद्ध मात्र रति-श्रादि स्थायी भावों को 'भाव' संज्ञा दी गयी है। अथवा जहाँ 'रति' वा 'प्रीति'-आदि भाव उद्बुद्ध मात्र हों, अपुष्ट हों-विभावानुभावसंचारियों से पुष्ट न हों, वहाँ ये भाव कहे जाते हैं। प्रीति वा रति शृंगार-रस में तभी परणित होती है, जब कि नायक-नायिका रूप बालंबन होने पर भी विभाव, अनुभाव और संचारी-भावों से पुष्टि हो, जैसा कि विश्वनाथ चक्रवर्ती ने अपने साहित्य-दर्पण में कहा है - "संचारिणः प्रधानानि देवादिविषया रतिः । उबुद्धमात्रः स्थायी च भाव इत्याभिधीयते ॥" -सा० द० (तृतीय परिच्छेद) अस्तु, दासजी अब-"भाव-उदय, भाव-संधि, भाव-शवलता, भाक्शांति भावाभास और रसाभास" का वर्णन करते हैं। संस्कृत मंथों में इनका क्रम-रसा- भास, भावाभास, भाव-शांति, भावोदय, भाव-संधि और भाव-शबलता - रूप से मिलता है। एक बात और, वह यह कि प्रथम दोहे के द्वितीय चरण में प्रयुक्त- "प्रघट्यौ 'रस-सारांस' में."...,के यहां दो अर्थ हैं-रसों का सार-अंश, संक्षिप्त और “रस-सारांस ग्रंथ विशेष, बो दासजी को एक पृथक् रचना है।" अथ भाव-उदै-संधि लच्छिन 'दोहा' जथा- उचित बात ततछिन लखें, 'उदै-भाव' की होह । बीच-हिं में द्वै भाव के, भाव-संधि है सोइ ॥ वि०-"जहां किसी भाव की शांति के अनंतर किसी कारण से दूसरे भाव का उदय हो-'उसमें विशेष चमत्कार हो, वहाँ 'भावोदय' और जहाँ समान चमत्कार वाले दो भावों की उपस्थिति एक साथ-ही हो, वहाँ 'भाव-संधि' कही पा०-१. [भा० जी०] [३०] अरु...। ३ [प्र०] [सं० प्र०] संध्य-दु ... [40] संध्यो ३. [३०] सांत्यो...। ४. [प्र०] १....
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