'दोहा तिलक (टीका) रूप में और दिया है, जिससे छंद-प्रयुक्त जीवन की इत्तवृत्तरूपी गुत्थी सहज ही खुल जाय-स्फुट हो जाय, वह दोहा इस प्रकार है :
{{Rh||"या कवित्त. अंतर बरॅन, लै तुकंत हूँछड।
इस कुजी-रूप दोहे से प्रथम जो जीवन वृत्त-ज्ञापक छंद ऊपर दिया गया है,उसमें 'यरबर' देशज नाम पाया है। वह देशज संज्ञा 'अरबर' का चित्रालंकार के अनुरूप रूपांतर है और कुछ नहीं, फिर भी हिंदी इतिहासकारों को उसने खूब छकाया है । फलतः किसीने आप (भिखारीदास) को बुदेलखंडी,किसी ने बघेलखंडी और किसी ने कहीं अज्ञात ग्राम का मान लिया। खैर हुई कि किसी महानुभाव ने इस रूपांतर रूप देशन शब्द 'अरबर' के सहारे 'अरब' का नहीं मान लिया, यदि मान लेते तो ब्रजभाषा के विस्तार का एक नया विस्तृत पृष्ठ खल जाता...। अत व यह सब-जाति-कुल ग्राम की जानकारी होते हुए भी अभी आपका जन्म-समय विवाद-ग्रस्त ही है, जिसे कोई सं० १७५५ वि०-१, कोई सं० १७६० वि०.२ और कोई सं० १७६१ वि०-३ या सं० १७६६ वि,के आस-पास मानते हैं । पिछले, अर्थात् सं० १७६१ तथा १७६६ जन्म-संबत उपयुक्त ज्ञात नहीं होते, कारण सं० १७६१ वि० में आपने "रस-सारांश" की रचना की थी, यथा :
“सत्रह सै इक्याँनमें, नभ सुदि छठ बुधवार । भरबर देस प्रतापगढ़, भयौ पंथ भौतार ॥"
इसी प्रकार आपका द्वितीय जन्म-समय सूचित करने वाला सं०१७६६ वि. भी गलत ठहरता है, चैं कि इस समय (संबत् ) में आपने "छंदार्णव" (पिंगल) की रचना की थी, जैसा कि उक्त प्रथ की पुष्पिका से ज्ञात होता है, यथा:
"सत्रह सौ निन्यान में, मधु बदि नव इक बिंदु । 'दास' कियो 'छंदारनौ' सुमिरि साँमरी इंदु॥"
अतएव ये दोनों जन्म-संबत् अप्रमाणिक हैं । हाँ, पूर्व लिखित सं० १७५५ या ६० वि० जन्म-समय के सूचक हो सकते हैं,किंतु पक्के प्रमाण के रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता।
१. मिश्रबंधु-विनोद, पृ. ६१२ (द्वितीय भाग)। २. प्राचार्य भिखारीदास-लेका नारायणदास खम्ना एम० ए०, पृ. २५,(जीवन-पत)।३.हस्त लिखित हिंदी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण, सं०--पा० स्वामसुंदरवास, पृ० "।