पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१२९

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काव्य-निर्णय सुपॅन, बिबोध, अमरख, अविहत्थ' गॅनि, उप्रता औ मति, ब्याधि, उनमाद, मरॅन ऑन । त्रास औ बितर्क बिभचारी-भाव तेतीस, ए, सिगरे रसँनर के सहायक से पैहचान ||* "दोहा" नाटक में रस आठ-ही, कहे भरत रिषि-राइ । जनत" नवम रस 'सांत' किय, तहँ 'निरबेदै थाइ ।। सांत-रस बरनन 'दोहा' जथा- मँन-बिराग सँम सुभ-असुभ, सो 'निरबेद' कहंत । ताहि बदेते होत है, सत-हिऐं रस-सत ।। वि०-"दासजी कहते हैं कि मन में वैराग्य अाने से वा तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होने पर 'शांत-रस' उत्पन्न होता है । अतएव जब सब जीवों के प्रति समान भाव उत्पन्न हो किसी के प्रति राग-द्वप का भाव उत्पन्न न हो तब 'शांत-रस' की उत्पत्ति कही जाती है। __ शांत-रस के संचारी भाव-"हर्प, विपाद, स्मृति, धृति और निर्वेदादि", स्थायी--'निर्वेद अथवा सम', बालंबन-"अनित्य-संसार की असारता का ज्ञान, परमात्मा का चिंतन, नरक के महान् दुःखों का चिंतन, प्रभु के गुणों का कीर्तन, ईश्वर-ध्यान, उद्दीपन-"बुढापा, मरण, व्याधि, पुण्य-क्षेत्र, सत्संग, ऋषियों का श्राश्रम, गंगा-यमुना के पवित्र-तट, विविध तीर्थ, एकांत वन", अनुभाव-"रोमांच, विलाप, योग-साधन, ईश्वर भक्ति, संसार-भीरता, शास्त्रों का अध्ययन' आदि, गुण-'माधुर्य', रीति-'वैदर्भो', वृत्ति-'उपनागरिका', सहचर-वात्सल्य, अ- द्भुत, करुण, बोभत्स-रस, विरोधी-"शृगार, हास्य, रौद्र, वीर और भयानक", वर्ण-'श्वेत' तथा देवता-'श्रीनारायण भगवान' कहे जाते हैं। ___ कान्य-प्रकाश (संस्कृत) में इसका स्थायी जैसा पूर्व में लिखा है-निवेद-ही माना गया है। वहाँ प्रथ-कर्ता कहते हैं-"तत्त्व-जान से जो निर्वेद उत्पन्न होता है वही स्थायी भाव है, इष्ट-नाश वा अनिष्ट की प्राप्ति के कारण निर्वेद' होने पर पा०-१. (४० नि०) अबहित्या...। २. (भा० जी०) रस नी के.... ३. (भा० जी०) आठ हैं। ४.(मा० जी०) (३०) कयौ। ५. (प्र०) (३०) अनत नवम किय सांत-रस । ६. (भा० जी०) निरवेद हि...। ७. (स० प्र०) चढ़ेते...।

  • , नि० (दास), १० २१,२३५ ।