काव्य-निर्णय १३ उत्पत्ति होती है, जैसा कि दासजी ने 'श्रीवावन भगवान की पुण्य-गाथा में गूथ कर यह छंद प्रस्तुत किया है । श्रद्भत के संचारी--"हर्ष, शंका, वितर्क, मोह", आवेगादि कहे जाते हैं। भ्रांति भी इसके संचारी भावों में पाता है। अतएव स्थायी-'विस्मय', श्रालंबन"-अलौकि-दृश्य, श्राश्चर्य-जनक वस्तुएँ व कार्य, उद्दीपन-"उनकी विवेचना अद्भुत वस्तु वा व्यक्ति का वर्णन, अथवा उनका गुण-कीर्तन" अनुभाव-रोमांच, स्तंभ, स्वर-भंग, प्रस्वेद अनिमिष देखना,संभ्रम-श्रादि...", गुण-प्रसाद, रीति-'पांचाली', वृत्ति- 'कोमला', सहचर-रस-"नवों रस", ब्रह्मा देवता और वर्ण 'पीत' कहा गया है, यथा- "परपोषक भास्चर्ज जहि', अद्भुत-रस वहि जौनि । नई बात कछु देखि-सुनि, उपजत है जो भाँनि ॥ बिन बूमें जो चकि रहै, वहै जॉन अनुभाव । पीत बरन, अरु देवता-ब्रह्म चित्त में लाव ॥" ___-२० प्र० (रसलीन) पृ० १३४ इस कवित्त के बाद प्रतापगढ़ की हस्त-लिखित और पं० महावीर प्रसाद मालवीय संपादित मुद्रित प्रतियों निम्नलिखित दो 'दोहा' विशेष मिलते हैं, यथा- "जे न बिमुख हैं 'थाइ' के, अभिमुख रहें बनाइ । ते 'विभचारी' बरनिऐं, कहत सकल कबिराइ ॥ रहत सदाँ थिर भाव में, प्रघट होत इहि भाँति । ज्यों कल्लोल समुद्र में, त्यों संचारी जाति ॥" अथ तेंतीस बिभचारी (संचारी) भाव जथा- निरबेद, ग्लानि,' संका,' असूया औ मद, सॅम, पालस, दीन, चिंता, मोह, स्मृति, धृति जाँन । बीड़ा, चपलता, हरख, भावेग' औ जड़ता, विखाद, सतकंठा, निद्रा, भी अपस्मार मॉन ।। पा०-१. (भा० जी०) ग्यांन ... २. (०नि०) संकर...। ३. (३०) भ्रम । ४. (३०) (१० नि०) दीनता...। ५.(०नि०) आवेग जड़ता विखाद...।
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