काव्य-निर्णय हाइ अपलोक-ओक' पंथ-हि गयौ पै- बिरहागिन दयौ में सोक-सिंध-हि बझौ-ई में । हाइ प्रॉन-प्यारे, रघुनंदन-दुलारे, तुम बँन कों- सिधारे प्रॉन-तैन" लै रह्यो-ई में ॥* वि०--बंधु-वियोग, धर्म-अपघात' एवं द्रव्य-नाशादि के अनिष्ट होने पर 'करुण-रस' की उत्पत्ति कही गयी है। इसके संचारी हैं-'मोह, विषाद, अश्रु, अपस्मार, जड़ता, उन्माद, व्याधि, श्रम और निर्वेदादि।' स्थायी- 'शोक,' बालंबन- 'बंधु-वियोग, पराभव, दरिद्र वा मृतक व्यक्ति, दुखी पुरुप, उद्दीपन-'प्रिय बंधुत्रों का दाह-कर्म, उनके स्थान, वस्त्र-भूषण, रुदन, चीत्कार, इत्यादि..| अनुभाव-'मूर्जा, विलाप, दीर्घ-स्वास, भूमि-पतन, विवर्णता, उच्छवाम, मुख का सूखना, स्तंभ, प्रलाप', गुण-'माधुर्य, रीति – 'वैदर्भी,' वृत्ति- 'उपनागरिका', सहचर-रस --'रौद्र, भयानक, शांत, अद्भुत, वीर, बीभत्स और वात्सल्य,' विरोधी-रस- 'शृगार और हास्य', देवता-'वरुण', वर्ण-'कपोत-चित्रित कहा गया है। रमलीनजी ने अन्य मतानुमार इसका देवता 'यम' माना है, यथा- "पर-पोषक जो सोक को, सो 'करुना-रस' होइ । इष्ट-नास, विपतादि सब, ए विभाव जिय जोह ॥ भ्रमॅन, पतँन, विपतन, सुसन, जॉन लेहु अनुभाव । 'जम' सो देवता कहत हैं, बरन कपोत-सहाब ॥" ___-२०प्र० ( रसलीन )पृ० १३० करुण रस का परिपाक गो• तुलसीदासजी के निम्न छंद में भी बड़ा सुदर हुअा है, यथा- "पुर ते निकसी रघुवीर-वधू, धरि धीर दिए मग में पग-है। मलकी भरि-भाल कनी जल की, पट सूखि गए मधुराधर वै॥ कि बूझति है चलनों जु किती पिय, परनकुटी करिही कित है। तिय की लखि भातुरता पिय की, अँखियाँ प्रति चारु चली जल वै ॥" ___पा०-१. [२० कु० ]. "अवलोकिवी कुपंथहि गली-ई, बिरहागिनि गहोई सोक-सिंधु निवौई....। २. [३०] में । ३. [ का० प्र०] दयौई सोकसिंध निवन्धी ई... । ४ [प्र.) सिंधुन बघौई...। ५.[३०] तन-प्रॉन ले .. ।
- र० कु० [अयो० ] पृ० १५२,४६१ । का० प्र० [ भानु ] पृ० ४४६,१।