पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/११३

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. 'कान्य-निर्णय "कडि विभाध को कहत हों, अब अनुभाव प्रकासः । जो हिय ते रति-भाव अनु, प्रघट करै अनयास ॥" 'कायक' इक सो जानिऐं', 'मानस' दूजो होइ। . 'माहारज' है तीसरी, चौथौ 'सास्विक' जोइ॥". . . -२० म० (रसलीन) पृ० ८६ कवि पद्माकर ने अनुभावों का वर्णन बड़ा सुदर किया है, जैसे- "गोरस को लूटिबौ, न छूटिबौ छरा को गर्ने, टूटिबी गर्ने न कछु मोतिन की माल की। कहै 'पदमाकर' गुवालिनि गुनीली हेरि, ____ हरखै, हँसै यों करै झूठे-मूठ ख्याल कौ ॥ हाँ करति, नाँ करति, नेह की निसाँ करति, साँकरी गली में रंग-राखति रसाल की। दीयौ दधि-दॉन को न कैसें ताहि भावत है, ____ जाहि मॅन-भायौ झार-झगरौ गुपाल को॥" __-ज० वि० (पनाकर) क्योंकि-- "बनने, बिगड़ने, रूठने, हँसने में लुक है। जब तक कि छेड़छाड़ न हो, कुछ मज़ा नहीं ॥" बिभचारी भाव 'अपस्मार' बरनन 'दोहा' जथा- को जाँनें, कैसे' परी, है बिहाल परबीन । कहूँ तार, तंबूर कहुँ कहुँ' सारी, कहुँ बींन ।। वि०-"मानसिक संताप-जनित अति दुःख से उत्पन्न अवस्था-विशेष को 'अपस्मार' कहा जाता है । दासजी से पूर्व 'कविवर विहारी' ने इस भाव को और भी सुंदर रूप में वर्णन किया है, यथा "कहा लड़ते हग किए, परे लाल बेहाल | कहुँ मुरली, कहुँ पीतपट, कहूँ मुकट-बनमाल ॥" पा०-१. ( भा० जी० ) (३०) कैसी परी, कहूँ बिहाल...| २, (सं० प्र०)(३०) कई सारि...।