पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१०९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय स्थायी भाव को उचित सहायता दे कर लुप्त हो जाते हैं। इन व्यभिचारी भावों की स्थायी भाव और रस के समान जो व्यंग्यार्थ-द्वारा ध्वनि निकलती है, वही श्रास्वादनीय होती हैं, क्योंकि इनका स्पष्ट-कथन करना रीति-ग्रंथों में दोष माना गया है। साथ ही ये शब्दों-द्वारा कहे जाने पर श्रास्वादनीय नहीं रहते। साहित्य- दर्पण के कर्ता ने इनकी परिभाषा निम्न प्रकार से दी है, यथा- "विशेषादाभिमुख्येन चरणाद्वयभिचारिणाः। स्वायिन्युन्मान निर्मग्नरस्नपत्रिंशव्य तद्भिदाः ॥" अर्थात् संचारी भाव विशेष रूप से नवों रसों में आने-जाने के कारण व्यभि- चारी कहलाते हैं, जो साधारणतया स्थायीभाव में निमग्न हो अंतर्हित होते रहते हैं। रीति-शास्त्र-प्रणेताओं ने-उग्रता, मरण, बालस्य और जुगुप्सा के अति- रिक्त शेप उनतीस (२६) व्यभिचारी 'शृगार-रम' के अंतर्गत गिनाए हैं । वहाँ इनकी 'मन-व्यभिचारी' संज्ञा भी पायी जाती है।" अथ सिंगार-रस बरनन 'दोहा' जथा-- जाँनों नायक-नायिका, रस-सिंगार-बिभाव । चंद, सुमन, सखि, दूतिका, रागादिको बनाव ।। औरन के न विभाव' मैं प्रघट कहे। इहि काज । सब के निरे' बिभाव हैं, औरों हैं बहु साज ।। सिंघ-बिभाव भयानको, रुद्र, बीरहूँ होइ। ऐसी साँमिल रीति में, नेम कहै क्यों कोइ ।। थंभ, सेद, रोमांच सुर-भंग, कंप, बैबर्न । सब-हो के अनुभाब ए, सात्त्विक औरों अन । वि०-"जैसा पूर्व में कहा गया है कि" सत्वोपन्न भावों को 'सात्विक भाव कहा जाता है और ये आठ प्रकार के होते हैं । जैसे- "स्तंभ, कंप, सुरभंग कहि, बिबरंग, अन्न , सेद । . बोहोरि प्रल, रोमांच पुनि, पाठों सात्विक भेद ॥" . -मा. भू० (जसवंतसिंह) १०१० पा०-१. (सं० प्र०) (३०) कयौ...J२. (प्र०) (३०) नरे...!