काव्य निर्णय कायिक, मन के उद्वेगादि मानसिक और स्वाभाविक रूप से प्रकट होने वाले भाव 'सात्विक कहे गये हैं। शारीरक गति-सूचक क्रियाएँ स्वाभाविक नहीं होती; यन-पूर्वक प्रदर्शित की जाती है, इसलिये ये 'यनज' कहलाती है, बाकी मानसिक और सात्विक 'श्रयनज' कही जाती हैं। सात्विक अनुभाव आठ प्रकार के होते हैं, यथा- "स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कंप बैवर्न । अन्न, प्रलाप ए साविकी,-भाव के उदाहनं ॥" • नि (दास) पृ०८० प्रात्मा में निहत रस को प्रकाशित करने वाला अंतःकरण का धर्म-विशेष "सत्व' कहा गया है, इसी समय से उत्पन्न शरीर के स्वाभाविक अंग-विकार को 'साविक' अनुभाव कहते हैं। अथ बिभचारी भाव बरनन 'दोहा' जथा- बिभचारी तेतीस ए, जह-तहँ होत सहाइ । म ते रंचक, अधिक अति, प्रघट करें थिरताइ । वि०-"चित की चिंता-श्रादि विभिन्न वृत्तियों को 'व्यभिचारी' वा 'संचारी' भाव कहा गया है । ये संख्या में तेंतीस (३३) हैं, जैसे- "कहि निरवेद, ग्लानि, संका, त्यों असूया, स्लम, मद, ति, मालस, बिषाद, मति,१० मानिऐं । चिंता, मोह, सुपन, विबोध, ४ स्मृति,१५ भैमरख. गरब, • उतसुकता, सुअवहित ठानिऐं। दीनता,"हरष, बीडा, उग्रता,२३ सु निद्रा,व्याधि,२५ मरन, अपसमार,२० भावेगहु मानिऐं। त्रास, उनमाद,.. पुनि जड़ता, चपलताई,३२ बितर्क," तेंतीसौ नॉम याही विधि जाँनिऐ ॥" -० वि० (पमान) अतएव ये रस के सहकारी कारण हैं, जो रस में संचार करते-उठते और नष्ट होते रहते हैं। ये स्थायी भावों की भांति रस की सिद्धि तक स्थिर नहीं रहते, अपितु अल्पा-विशेष में उत्पन होकर अपना प्रयोजन पूरा करने के उपरांत पा०-१. (३०) सु जाइ । २. (प्र०) (4०) (सं0प्र.), पिरमाद ।
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