अथ रुद्र (रौद्र), भयानक मौ बिमच्छ रस बरनन 'दोहा' जथा-- है। रिस बादै 'गद्र रस', भय-हिँ 'भयानक लेख । पिन ते हैं 'बीमच्छरस', 'अदभुद' बिसमय देख ॥ वि०-"रिस रूप रस के प्रास्वादन से 'रौद्र-रस', जिस रस के श्रास्वादन में इंद्रिय-क्षोभ या भय उत्पन्न हो वह 'भयानक', जिस रसास्वादन से घृणा के भाव उत्पन्न हों वह 'बीभत्स रस' और जिस रसास्वादन से विस्मय, आश्चर्य प्रकट हो उसे अद्भत रस कहा गया है। इन चारों के मी-संचारी, स्थायी, बालंबन, उद्दीपन, अनुभाव, गुण, रोति, वृत्ति, महचर और विरोधी रस है, जिन्हें विस्तार-भय से यहाँ उद्धृत नहीं किया गया है ।" अथ रस उत्पत्ति कथन 'दोहा' जथा- जा' हिय प्रीति न सोग, है, हँसी न उच्छह ठाँन । सो बातें सुंनि क्यों द्रबै, दृढ़ है रहे पखाँन । अथ थाई, विभाव, अनुभाव बरनन 'दोहा' जथा- वा थाई-भाव कों, रस को बीज गॅनाव । कारन जॉन 'विमाव' पर कारज अँनुभाव।। वि०- स्थायी भावों की विशेषता का कथन पूर्व में आ चुका है, अतएव मन के भीतर सोती हुई भावनाओं को जो विशेष रूप से जाग्रत करें--प्रवर्तित करें, उन्हें 'विभाव' और जिन (चेष्टाओं) के उत्पन्न होने पर रस का अनुभव होने लगे वे 'अनुभाव' कहे जाते हैं। अतएव विभाव - "रस उपजै भालंब लिहि, सो'मालंबन' होह। रस-हिं जगावे दीप-ज्यों, 'उहीपन' कहि सोइ । मा० वि० (देव) रूप दो प्रकार का कहा जाता है। विभाव का अर्थ है 'कारण', अर्थात जो रस-निस्पत्ति में कारण हैं, उन्हें ही विभाव कहते हैं और ये पूर्व कथित. 'श्रालंबन' और 'उद्दीपन' दो प्रकार के होते हैं। अनुभाव तीन प्रकार के होते है-"कायिक, मानसिक' और 'सात्विक' । इन्हें-'यत्नजर और 'प्रयत्नज' भी कहते हैं। शारीरक गति सूचक क्रियाएँ पा-१(प्र०) यो...। २, CM जी) मा हिल प्रीतिनः करें, 11 (०) (प्र० मु०) ...... प्र.) हिलोरी पान ।
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