६८ काव्य-निर्णय "श्रृंगारहास्पकरण रौद्र वीरभयानकाः । बिभत्सोऽद्भुतइत्यष्टौ रसाः शांतस्तथा मतः ॥" कहते हुए भी दसवें 'वात्सल्य रस को भी स्वीकार किया है। कविवर 'देव' ने भी तीन-'श्रृंगार', 'मीर' और 'शांत' रस को ही मान्यता देते हुए कहा है- "तीन मुख्य नौ-हू रसँन, है- प्रथमन लींन । प्रथम मुख्य तिन तिनहुँ में, दो तिहिं भाधीन ।। हास्यरु भै सिंगार-मॅग, रुद्र कहन-सँग-बीर । अदभुत अरु कीभत्स-संग, बरनत सांत सुधीर ॥" अस्तु, रीति-ग्रंथों में अन्य स्थायी भाव और रसों के अतिरिक्त शृगार रस के स्थायी भाव की मान्यता में भी भिन्नता है। अतएव कोई शृंगार रस का स्थायी भाव-'प्रीति', कोई-रति' और कोई 'प्रेम' को मानते हैं, जो प्रायः एक ही वस्तु-अर्थ के द्योतक हैं। यह प्रीति उत्तम, मध्यम और अधम नामों से संबोधित की जाती है। उत्तम प्रीति तो वह जो 'सदा एक रस रहे,' कमी द्विधा की दुर्गध से दूषित न हो और 'मध्यम' -'अकारण परस्पर प्रीति' को कहते हैं तथा अधम-प्रीति केवल 'स्वार्थ-वश होती है। देव ने 'प्रेम' को पांच प्रकार का माना है, यथा "सानुराग, सौहाद पुनि, भक्ति और वात्सल्य । प्रेम पांच विधि कहत है, कारपम्म बैकल्प ॥" शृंगार-रस के स्थायी भाव 'प्रीति' के संबंध में यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिये कि "स्त्री में पुरुष की और पुरुष में स्त्री की प्रीति ही शृंगार रस का स्थायी भाव है और गुरु, देवता तथा पुत्रादि के प्रति जो 'प्रीति' होती है वह शृंगार का स्थायी भाव न बन उसकी केवल सजा है-भाव-संज्ञा है। संचारी भाव अपने अनुकूल वा विरोधी भावों के कारण घटते-बढ़ते, उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं, किंतु स्थायी भाव विकृत नहीं होते, क्योंकि संचारी भाव इनके अनुचर है-पोषक हैं। प्रीति वा रत्यादि की परिपक्वा- वस्था में ही स्थायी संज्ञा है-इसके बिना ये भाव मात्र हैं। इनके उदाहरण तत्-तत् रसों की परिपक्वावस्था में ही मिलते हैं, अन्यत्र नहीं । कारण-जहाँ स्थायी भाव रस-भवस्था को नहीं पहुँचते वहां वे भाव तो रहते हैं, पर उनकी 'स्थायी' संशा नहीं बनती, केवल भाव-मात्र रह जाते हैं।"
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