फालिदान अच्छा, यह तो मय मुथा। पर एक थान हमारी समझ में नहीं आई। यदि कालिदास को चन्द्रगुम, समुद्र गुप्त, स्कन्दगुप्त या और किसी गुप्त नरंश किंवा योधर्मा का कीर्ति-गान अमीर था तो उन्होंने साफ माफ वैमा फोन किया? पान एक अलग प्रन्य में उनकी स्तुति की ? प्रयया पो न उनका चम्ति या पंरा-वर्णन सष्ट शब्दों में किया ! गुप्त, स्वान्द, कुमार, समुद, चन्द्रमा, विक्रम श्रीर प्रताप यादि शवों का प्रयोग करके दिपेलिपे को उन्होंने गुप्त-घंश का वर्णन किया? इस विषय में बहुत कुछ कहने हो जगह है। पर इस लेख में नहीं। जैसा ऊपर एक जगह लिखा जा चुका है, पुरातत्व अधिकांश विद्वानों का मत है कि ईसा के ५७ वर्ष पूर्व भा- त में विक्रमाहित्य नाम का कोई राजा ही न था । उसके Tम से जो संवत् प्रचलित है वह पहले मालव-संवत् कह- ता था । पीछे से उसका नाम विक्रम संवत् हुश्रा। सारांश यह कि कालिदास विक्रमादित्य के सभा- रिडत ज़रूर थे। पर दो हजार पर्प के पुराने काल्पनिक क्रिमादित्य के सभा-पण्डित न थे। ईसा के पाँच-छ: सौ पं याद मालवे में जो विक्रमादित्य हुना-चाहे यह यशो- मां हो चाहे और कोई उसीके यहाँ ये थे। पर प्रसिद्ध द्वान् चिन्तामणिराव वैद्य, एम० ए०, एल्-एल० पी० ने
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