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[कालिदास का आविर्भाय-काल । इसमें भी गुप्त शब्द गुप्त-पंश का सूचक है। प्रयाग में समुद्र-गुप्त का जो स्तम्भ है उस पर उसके विजय की पार्ता खुदी हुई है। यह रघु के दिग्विजय से बहुत कुछ मिलती है। अर्थात् कालिदास ने रघु के दिग्विजय के पहाने समुद्रगुप्त का दिग्विजय-वर्णम किया है । मजूमदार महाशय ने रघु का दिग्विजय स्कन्दगुप्त का दिग्विजय पताया। इन्दोंने उसे समुद्रगुप्त का यताया ! आगे चलकर पाटकों को मालूम होगा कि एक और महाशय ने उसे ही यशोधर्मा का दिग्विजय समझा है!! कुमारसम्भय के "कुमारकल्प सुपुये कुमारं" और "न कारणाद् स्वाद् विभिदे कुमार"- चादि में ओ कुमार शप्प है उसे आप लोग कुमारगुप्त का पाचक बतलाते हैं। पाएदेय जी की यशःप्राप्ति में बड़ी वाघाये या रही हैं। राकर ए० येक ( Beck) सिम्यती और संस्थत भाषा के पड़े परिष्ठत हैं। कालिदास के समय-निधय के विषय में जिन शत्यों का प्राविष्कार पाएदेय जी ने किया है, टीक उन्ही का माविकार डाकर साहय ने भी किया है। परन्तु परिष्डतों की राय है कि दोनों महाशयों को एक दूसरे की पोज को कुछ भी सपर नहीं थी। दोनों निधय या निर्णय पपपि मिलते तथापि उनमें परस्पर प्राधार माधेप भाय मही। यही ठीक भी होगा। कि विमान जान बूझकर