यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

{कालिदास की दिखाई हुई प्राचीन भारत की एक झलक ।

मुनि मृगों को भी पालते थे, वे गृह-पशुओं की तरह उनके भाश्रमों में विचरा करते थे।

क्रयानिमिर्तवपि वत्सलन्या-

दभग्नकामा मुनिभिः कुशेषु.।

तरकशय्याथ्युतनामिनासा ।

कचिन्मृगीणामनघा प्रसूतिः ॥

मुनिजन बड़े ही दयालु होते हैं। आपके आश्रम की हरिणिताँ जय वंश्चे देती है तब ऋषि-लोग उनके ययों की येहद सेवाशुश्रूषा करते हैं । श्राधम के आसपास सब तरफ जङ्गल है। उसमें सांप और बिन्दू नादि विषैले जन्तु भरे पड़े है। उनसे यच्चों को कष्ट न पहुँचे, इस कारण ऋषि उन्हें प्रायः अपनी गोद से नहीं उतारते । उत्पन्न होने के बाद दस बारह दिन तक वे उन्हें रात भर अपने उत्सङ्ग ही पर रखते हैं । अतएव उनके नामिनाल ऋपियों के शरीर ही पर गिर जाते हैं। परन्तु इससे घे ज़रा भी विषण्ण नहीं होते । जय घे बचे यढ़कर कुछ बड़े होते हैं तय यशादि बहुत आवश्यक क्रियाओं के निमित्त लाये गये कुशों को भी ये खाने लगते हैं। परन्तु इन पर ऋषियों का अत्यन्त स्नेह होने के कारण उन्हें ऐसा करने से भी वे नहीं रोकते। उनके मैमित्तिक कार्यों में चाहे भले ही विघ्न प्रा जाय, पर मृग-

शिशुओं की इच्छा का घे विधात नहीं करते । आपकी यह

२२७