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[कालिदास की दिखाई दुई प्राचीन भारत की एक झलक ।

फापेन वाचा मनसापि राय--

यस्सम्भृतं वासवधैर्यलोपि।

पापाद्यते न व्ययमन्तरायैः

कचिन्महविविधं तपस्तव ॥

हाँ, महाराज ! यह तो कहिए-आपके विद्या-गुरु महर्षि यरतन्तु की तपस्या का क्या हाल है ? उनके तपश्चरण के पाधक कोई विघ्न तो उपस्थित नही-विघ्नों के कारण तपश्चर्या में कुछ कमी तो नहीं पाती ? महर्षि यड़ा ही घोर तप कर रहे हैं। उनका तप एक प्रकार का नहीं, तीन प्रकार का है। कृच्छ्चान्द्रायणादि प्रतों से शरीर-द्वारा, तथा येदपाठ और गायत्री श्रादि मन्त्रों के जप से पाणी और मन के द्वारा अपनी तपश्चर्या को निरन्तर वृद्धि किया करते हैं। उनका यह फायिक, घाचिक और मानसिक तप सुरेन्द्र के धैर्य को भी चञ्चल कर रहा है। यह डर रहा है कि कहीं ये मेरा आसन न छीन लें। इसीसे महर्षि के तपश्चरण-सम्बन्ध में मुझे बड़ी फ़िक रहती है। मैं नहीं चाहता कि उसमें किसी तरह का व्याघात पड़े, क्योंकि ऐसे ऐसे महात्मा मेरे राज्य के भूपण हैं। उनके कारण मैं अपने को पड़ा भाग्यशाली समझता हूँ।

भाधारबन्धसमुः प्रयत्नैः

सवर्षिताना मनिर्विशेषम् ।

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