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फालिदास ।

न फरमी नोट थे, म प्रामीसरी नोट । यह यह समय था जय न कहीं नुमायशं थी,न कांग्रेस थी, न मुसलिम लीग थी, न हिन्दू-सभा थी। यह सय न था, पर था कुछ ज़रूर। यह जो कुछ था, भूलने की चीज़ नहीं । उसकी याद सुखकारक भी है, दुःखकारक भी। तुम्हारी उस पूर्व दशा का दृश्य देखने को अय हम लालायित हो रहे हैं, पर नहीं देख पड़ता। कृतज्ञ है हम गर्वनमेंट के जिसकी बदौलत प्रयाग को प्रदर्शिनी में नुम्हारे कुछ प्राचीन-लीला-दृश्य देखने को मिल गये। पर उतने से सन्तोष कहाँ ? उससे तो उन दृश्यों के दर्शन की लिप्सा और भी यढ़ गई है। पया कभी उसकी पूर्ति भी होगी?

वात आजकल की नहीं, सी दो सौ वर्ष की भी नहीं । उसे हुए हज़ारों वर्प योत गये। उस समय राजा रघु का राज्य था। ससागरा पृथ्वी के घे पति थे। साकेत नगरी (प्राचीन अयोध्या) उनकी राजधानी थी। सत्पात्रों को दे डालने ही के लिये घे धनोपार्जन करते थे, प्रजा के काम में लगा देने ही के लिए ये कर लेते थे; निर्यलों को प्रयलों के उत्पीड़न से बचाने के लिए ये धनुर्याए धारण करते थे। विद्वानों का प्यार पे अपने प्राणों से भी अधिक करते थे, उन्हें घे देवता समझते थे; उनके पैर तक अपने हाथों से

धोते थे। यह मजाल न थी कि अरण्यवासी विद्वानों के

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